बताते ही रहे। जैसे ईश्वर को बता नहीं पाये फिर भी बताते ही रहे। इस ढंग से हम फंस गये हैं इससे हटकर कुछ सोच नहीं पाते। इससे छुटकारा पाने की विधि है कि जीवन तो नित्य है। शरीर तो जीवन के लिए बारम्बार घटना है।
शरीर की रचना गर्भाशय में होती है। अस्तित्व सहज विधि से परमाणु विकसित होकर जीवन पद में आता है। शरीर बारम्बार रचित व विरचित होता है। प्राणावस्था की एक सीमा है उसके बाद वह विरचित हो जाता है। शरीर भी प्राणकोशों से रचित इकाई है। शरीर रचना में जितना संपन्न मेधस हो सकता था वह मानव शरीर रचना में निहित है। इस आधार पर मैं इस बात को सत्यापित कर रहा हूँ कि मानव संपूर्ण अस्तित्व को दूसरे को संप्रेषित कर सकता है। इससे ज्यादा मेधस का कोई प्रयोजन भी नहीं है। इस आधार पर मानव की शरीर रचना (प्राणसूत्र रचना विधि के आधार पर अनुसंधान होते बनी) श्रेष्ठतम हो गई है और भी कोई चीज बची होगी वह भी आगे पूरी हो जायेगी। इस बीच शरीर यात्रा में हमको क्या करना है? जीवन जागृति को प्रमाणित करना है। इस क्रम में हम जैसे ही शुरू किये, संवेदना के छुपने का काम हुआ नहीं। न विज्ञान विधि से न आदर्शवादी विधि से। संवेदनाओं के विरोध में बहुत सारे तप बताये गये हैं। बहुत से तपस्वी हुए इस धरती पर किन्तु इन तपस्या के परिणाम में एक निश्चित समझदारी जिसके लिये मानव तरस रहा है वह व्यवहार में, परंपरा में आया नहीं। अब तपस्वी क्या खोये क्या पाये ये तो वही सत्यापित करेंगे। सामान्य लोग ऐसे तपस्वी से सिद्धि चमत्कार की अपेक्षा किये हैं। उसके पीछे लट्टू होकर घूमे हैं। मैं बता दूं कि अस्तित्व में न सिद्धि है न चमत्कार है, अस्तित्व में निश्चित व्यवस्था है, निश्चित परिणाम है, निश्चित उपलब्धि है, निश्चित मंजिल है, इसकी निरंतरता है, इसको मैंने देखा है, समझा है। ऐसे निश्चित मंजिल के लिये हम आप प्रत्याशी हैं। निश्चित विधि से ही वह निश्चित मंजिल मिलने वाला है। मानव का अध्ययन छोड़कर, काकरोच को सर्वाधिक विकसित प्राणी बताकर, रासायनिक खाद बनाकर, कीटनाशक बनाकर हम मानव की मंजिल नहीं पायेंगे। मानव की मानसिकता को धन के रूप में, शोषण के रूप में प्रयोग करके भी मानव अपनी मंजिल को नहीं पायेगा। इसका नाम दिया है ‘इन्टेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट’। विश्व की सर्वोपरि संस्थायें और न्यायालय भी इसे स्वीकारना चाह रहे हैं। जीवन की अक्षय शक्तियाँ है उसको कहाँ शामिल किया जाये। उसको भोगद्रव्य के रूप में कैसे उपयोग किया जाये इसका उत्तर कोई देगा? क्या जीवन को समझकर ऐसा प्रस्ताव रखा है? यह कहाँ तक मानव जाति के लिए उपकारी है? मेरा अनुभव यह कहता है मानव की जीवन शक्ति को कितना भी उपयोग करें वह घटने वाली नहीं है। इसे आप अनुभव करें करोड़ों आदमी अनुभव करके देख सकते हैं। जीवन शक्तियों का जितना भी उपयोग करें, शक्तियाँ और ताजा व प्रखर होती है। जितना आज उपयोग किया कल उससे ज्यादा प्रखर हो जाती है।