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जीव-वनस्पति संसार के साथ भी सहअस्तित्व में जीते हैं। वनस्पति संसार से हम कुछ लेते हैं वनस्पति संसार को देने के लिये भी कुछ हो। बिना कुछ दिये केवल लेना चाहते हैं तो इसका नाम है शेखचिल्ली। इस शेखचिल्ली विधि से प्रताड़ित, दुखी होने के अलावा कुछ बनता नहीं है। इसका अंतिम चरण यही है प्रताड़ना में अंत हो जाना, दुख में अंत हो जाना यही बनते जा रहा है। वर्तमान में जो घटनाएं हो रही है इसी को घोषित कर रही हैं।

सहअस्तित्व में जीने के लिए वनस्पति संसार अर्थात जंगल, पेड़-पौधे और पदार्थ संसार के साथ हमारे सहअस्तित्व को निश्चयन करना आवश्यक है। यदि इनके साथ हमारे सहअस्तित्व को निश्चय करने में असमर्थ हैं तो हम ज्ञानी नहीं, हम विज्ञानी नहीं है, हम विवेकी नहीं है। अर्थात न हमारा ज्ञान पूर्ण है न हमारा विज्ञान पूर्ण न विवेक पूर्ण है। पेड़-पौधों को छोड़कर कहाँ जियेंगे। पृथ्वी, पहाड़, खनिज को छोड़कर, जीव संसार को छोड़कर कहाँ जियेंगे। इन सबके साथ हमको जीना ही है, ये सब हमारे साथ रहने वाले द्रव्य है, संपदा है, ऐश्वर्य है। हमको इनके साथ रहना है। इनको भी रहना है। इस निश्चयन में मानव ही प्रमुख मुद्दा है। मानव ही इसमें भ्रमित होकर प्रताड़ित होकर, दुखी होकर जिया है। अब करवट लेने की जरूरत है। जागृत होने की जरूरत है। सबके साथ सहअस्तित्व को पहचानने की जरूरत है। सहअस्तित्व को पहचानने की विधि में हम पाये हैं कि ये सबके सब सत्ता में ही है यह सहअस्तित्व की पहली गवाही है। क्रम से पदार्थावस्था से ही प्राणावस्था उद्गमित, प्रभावित और निरंतर वैभवित है। प्राणावस्था अपने आप में व्यवस्था के रूप में प्रभावित है, प्रमाणित है, वैभवित है। जीव संसार भी अपने त्व सहित व्यवस्था में गवाहित है। मानव अपने त्व को कैसे समझा जाये, स्व को कैसे समझा जाये। स्व भी रहे त्व भी रहे यह मुख्य मुद्दा है।

जीवन विद्या से स्व, त्व समझ में आता है। जीवन को मैं ‘स्व’ के रूप में पहचानता हूँ आप भी पहचान सकते हैं। शरीर को ‘स्वरूप’ में पहचानते तक भ्रमित रहते हैं। जीवन को ‘स्व’ रूप में पहचाना, उसी क्षण से मैं व्यवस्था में जीता हूँ। आप भी वैसे ही जी सकेंगे। इससे पहले व्यवस्था होने वाला नहीं है। कितनी प्रकृति सहज, सहअस्तित्व सहज परिपूर्ण प्रक्रिया है। समझने वाली वस्तु भी जीवन है जो समझेगा वह भी जीवन है। आदर्शवादियों के अनुसार दृश्य, दर्शन, दृष्टा तीनों एक होने पर ही मुक्ति होती है। उनके अनुसार ईश्वर ही दृश्य है, ईश्वर ही देखने वाला है, ईश्वर ही दर्शन है। इन्हीं आधारों पर बहुत सारा वांङमय रचा गया है। इसके बाद भी ईश्वर कैसा है? कहाँ है? क्यों है? ये समझ में नहीं आया। इसके बाद भी ईश्वर के आधारित बात मानव सुनता है, अच्छा लगता है। यह बात देखा गया है अच्छा लगने में, अच्छा होने में दूरी यथावत बना हुआ है। इसके बाद मानव को यंत्र बताने लगे वो भी हो नहीं पाया लेकिन

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