के लिए मैंने जो प्रस्तुत किया है वह तन, मन, धन रूपी अर्थ है। यहां धन का तात्पर्य सामान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं से है। जिसमें आहार, आवास, अलंकार, दूरदर्शन, दूरगमन, दूरश्रवण संबधी आवश्यक वस्तुएं है। इस तरह से हमारे आवश्यकीय वस्तुओं की उपयोगिता होगी संग्रहण नहीं होगा। जैसे अनाज पैदा करते हैं एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष रखेंगे बाद में रखने पर तो सड़ ही जायेगा। उसी प्रकार कोई यंत्र उपकरण उपयोग न करने से अपने आप जंग पकड़ कर समाप्त हो जायेगा। इस तरह हम जो भी यंत्रों को तैयार करते हैं वे सब उपयोग के लिए रहता है इनको संग्रह किया भी नहीं जा सकता। संग्रह किया जा सकता है तो भी एक सीमा तक।
जितना ज्यादा हम संग्रह करने जायेंगे उतना ही ज्यादा कष्टदायक हो जाता है। इसलिए इनकी उपयोगिता अवश्यंभावी हो जाता है। उपयोगिता के अनन्तर सद्उपयोगिता और प्रयोजनशीलता के लिए सारे वस्तुओं को नियोजित किया जा सकता है। एक बहुत खूबी की बात मैंने देखा है किसी भी वस्तु के उत्पादन करते समय मन का होना जरूरी है, मन के बाद तन का होना जरूरी है। मन और तन के संयोग से ही सारे वस्तुओं का उत्पादन होता है। इस ढ़ंग से हम शायद साफ - साफ एक अवधारणा को स्वीकार सकते हैं कि वस्तु का मतलब है धन और इनका अर्थ है सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तु। इस निर्णय से फायदा क्या होगा मानव जाति का मन उत्पादन की ओर लगने की शुरूआत होती है। अभी तक अर्थशास्त्र का डंका बजा-बजाकर हम मानव जाति (पढ़ा हुआ) के उत्पादन प्रकृति को निरर्थक या बिल्कुल उन्मूलन किये ही रहे हैं। बरबाद किए ही रहते हैं। उसके बाद और कोई स्पेशलाइजेशन की बात करते हैं उसमें उत्पादन कार्य प्रवृत्ति और भी बर्बाद होती ही है। बर्बाद होने के बाद वो एक अच्छा आदमी माना जाता है। ऐसा अच्छा आदमी बनने के पश्चात् बिना उत्पादन किये उनको सब कुछ चाहिए, सबसे ज्यादा उन्हीं को चाहिए। इस ढ़ंग से उत्पादन नहीं करने की प्रवृति और सम्पूर्ण वस्तुओं को ज्यादा से ज्यादा पाने की इच्छा ये दोनों मिलकर के संसार के साथ द्रोह, विद्रोह, शोषण होना भावी हो जाता है। इस ढंग से आदमी फंसा है। इससे मुक्ति चाहिए। मैं मुक्ति पाया हूं हमकों किसी का शोषण करने की जरूरत नहीं है, न द्रोह, विद्रोह करने की जरूरत है। परिश्रम से हम स्वयं अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करते हैं। आप भी कर सकते हैं। आवश्यकता परिवार में ही निश्चित होती है, न कहीं व्यक्ति में न संसार में होती है। परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लिया तो हम समृद्धि का अनुभव करते हैं। इस ढंग से आर्वतनशील अर्थ व्यवस्था के अध्ययन की आवश्यकता महसूस हुई। उसको निश्चित रूप में उसकी रचना करके हिन्दी भाषा में संसार को दिया है। वह लोक गम्य हो जाए तो इससे उपकार होगा। इससे कभी भी संसार के किसी भी आदमी, किसी भी परिवार का कहीं भी क्षति होने वाला नहीं है। होगा तो उपकार ही होगा। तो हमें भी शोषण विधि से मुक्त होना है। द्रोह, विद्रोह से मुक्त होना है। जो राजनीति