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प्रौद्योगिकी कर्म किये हैं, धरती का पेट फाड़ा फलस्वरूप कष्टग्रस्त हैं ही। इन समस्याओं के कारण मानव इस धरती पर रहेगा, नहीं रहेगा यह प्रश्न चिन्ह बन ही चुका है? मेरे देखने के अनुसार हर मानव, हर स्थिति, हर गति में समाधानित हो सकता है यही व्यवहारात्मक जनवाद में प्रतिपादन की बात है। इसका सार बिन्दु यही है संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति। इसी के चलते सर्वतोमुखी समाधान हमें मिलता है। आर्थिक समाधान मिलता है, आवर्तनशील विधि से। सांस्कृतिक विधि मिलता है मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान से। मनुष्य ज्ञानावस्था की इकाई है वह संज्ञानशीलता से ही आपने को प्रमाणित कर पाता है। संबंध होना वर्तमान में विश्वास होना। व्यवस्था में जीना और सहअस्तित्व को प्रमाणित करना। इस ढंग से व्यवहारात्मक जनवाद सर्वतोमुखी समाधान के अर्थ में प्रतिपादित है।

प्रश्न :- फ्रायड ने एक प्रतिपादन प्रस्तुत किया जिसमें उसने आदमी की तमाम इच्छाओं को एक बिन्दु पर केन्द्रित कर दिया, वह है ‘काम (सेक्स)’। आज दुनिया में इस विचारधारा को तमाम लोगों ने अघोषित या घोषित रूप से स्वीकार कर लिया है लेकिन हम देखते हैं कि उससे सारी दुनिया में आदमी के बारे में एक स्पष्ट और समाधानकारी चिंतन और परिणाम नहीं मिला। आपने मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान की बात कही है। यह मनोविज्ञान किस तरह से फ्रायड के मनोविज्ञान की जगह लेगा? इस अवधारणा से कैसे आदमी सुख-शांति को प्राप्त करेगा और समग्र मानव जाति एक सही दिशा को प्राप्त कर सकेगी।

उत्तर :- हर मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप है, इस बात को स्पष्ट किया है। जीवन मूल रूप में गठन पूर्ण परमाणु है। परमाणु ही संक्रमित होकर चैतन्य प्रकृति (जीवन) में होता है। तब प्रकृति अपने चैतन्य रूप में वैभवित हो पाती है। गठनपूर्ण परमाणु भारबंधन एवं अणुबंधन से मुक्त रहता है। यही उसका वैभव है। यह सहअस्तित्व विधि से समृद्ध मेधस-सम्पन्न शरीर को चलाने योग्य हो जाता है। ये दोनों नियतिक्रम में आने वाली विधियाँ है अर्थात् निश्चित रूप में अस्तित्व सहज उपलब्धियाँ है। मनुष्य में और अन्य जीवों में जीवन का और शरीर का संयुक्त रूप में होना होता है। इसको भली प्रकार से देखा गया है। इसका अध्ययन किया जा सकता है। अध्ययन का केन्द्र बिन्दु यही है कि जीवित रहना, न जीवित होना, जीवन-सम्पन्न रहना, और जीवन रहित रहना यह स्पष्ट होता ही है। इसमें जीवन सम्पन्न रहने का जो प्रमाण है ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार से समझ में आता है। जीवन शरीर के द्वारा प्रकाशित नहीं हो पाता है अर्थात ज्ञानेन्द्रियों का कार्य-कलाप जब नहीं हो पाता है तब मर गया कहते हैं। मरने का मतलब शरीर को जीवन छोड़ दिया रहता है। शरीर से जब जीवन अलग हो जाता है उस समय से मृतक हो गया ऐसी घोषणा करते हैं। ऐसे शरीर को हम मनुष्य नहीं कहते हैं। ‘जीवन’ शरीर को चलाते हुए स्थिति में ही हम मानव कहते

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