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प्रश्न :- आप दिल्ली में भारत के चीफ जस्टिस वेंकट चलैय्या जी से मिले थे और सार्वभौम न्याय के बारे में उनसे पूछा था जिसका उत्तर उनके पास नहीं था। भारत में न्याय अलग, पाकिस्तान में न्याय अलग। भारत में ही हिन्दु के लिए अलग न्याय और मुस्लिम के लिए अलग न्याय इस तरह न्याय के बारे में बहुत भ्रम है। आपने कहा न्याय परिवार में प्रमाणित होता है जबकि हम सोचते हैं न्याय अदालत में होता है स्पष्ट करें।

उत्तर :- सूत्र रूप में कहा गया है “संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति” यही न्याय है। संबंध का मूल्यांकन होना, उभयतृप्ति होना बहुत जरूरी है। मनुष्य के साथ जड़ चैतन्य का संबंध रहता ही है। चाहे आप नकारो चाहे स्वीकारो। जैसे हवा के साथ संबंध। नैसर्गिकता के साथ संबंध न रहे, मानव के साथ संबंध न रहे ऐसा कुछ आप बना नहीं सकते। यह सब मानव परिवार में ही मिलता है। जबकि न्यायालय में फैसला होता है, न्याय नहीं।

प्रश्न :- आपका सारा प्रतिपादन ही सहअस्तित्व मूलक है। आपने कहा प्रकृति सत्ता में है। इस तरह सहअस्तित्व सर्वस्व है। आप कहते हैं जहाँ कोई इकाई नहीं है वहाँ भी सत्ता है और जहाँ इकाइयाँ ठसाठस भरी है वहाँ भी सत्ता है इसे समझाइये।

उत्तर :- व्यापक वस्तु हमको जल्दी समझ में आता है। जिसे खाली स्थान कहें, सत्ता कहें, परमात्मा कहें, ईश्वर कहें। ये क्या चीज हैं। यह मूल वस्तु है, ऊर्जा है। यह ऐसी वस्तु है जिसमें जो भी इकाईयाँ है इससे प्रेरित होने योग्य है। प्रेरित होना कैसे होता है क्या ऊपर से धक्का मारता है? पहले ऐसा भी कहा गया कि एक शुरू हुआ फिर उसके धक्के से एक-एक करके सब शुरू हो गये। सत्ता में धक्का देने वाली कोई गुण नहीं है। इसमें न तरंग है, न गति, न दबाव है इसलिए धक्का देने वाली बात आती नहीं है। हर वस्तु सत्ता में ऊर्जित है, प्रेरित है यह तो प्रमाण है ही। यह सर्वत्र विद्यमान है ही। हर इकाई व्यापक में डूबे भी हैं, घिरे भी हैं। एक-एक अलग होने का अर्थ ही है कि उनके बीच में सत्ता है। बीच में सत्ता न हो तो अलग-अलग हो ही नहीं सकते। जुड़ता भी इसलिए है कि बीच में सत्ता है। इस प्रकार रचना विरचना का आधार हो गया और ऊर्जा संपन्नता है ही वस्तु में क्योंकि क्रियाशील हैं ही।

इस वस्तु को पुन: दूसरे ढ़ंग से अध्ययन किया। एक तो इकाईयों के रूप में वस्तुएं दिखती है, उनका आयतन और व्यापक रूप में दिखती है उसका आयतन समान है या भिन्न है ये बात सोचा गया। व्यापक वस्तु का कोई आयतन बनता ही नहीं, सीमा बनता ही नहीं।

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