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हैं। ऐसा हर मानव एक विचारशील इकाई है। जीवों में विचारणा का कोई स्थान नहीं है। जीवों का विचार वंशानुषंगीयता के रूप में ही है। मनुष्य वंशानुषंगीय विधि से जीना चाहे तो भी कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता उससे अधिक दूर दूर तक पहुँचा ही रहता है। जब वंशानुषंगीयता के अर्थात् शरीर के सीमा में यदि हमारा विचार सीमित नहीं हुआ उस स्थिति में हम दूर-दूर तक फैलते ही हैं। इसके कारण हमारा (जीवन का) शरीर सीमा से सीमित रहना नहीं बना। इसके कारण हमारा शरीर सीमा तक विचार कर हम कहीं तृप्त नहीं हुए, समाधानित नहीं हुए। इसका गवाही है न तो हम समाजिक हो पाये और न ही अखण्ड समाज बना। सार्वभौम व्यवस्था को नहीं पाये। कुत्ते की व्यवस्था सार्वभौम है, घोड़े की व्यवस्था सार्वभौम है, हर जीव की व्यवस्था सार्वभौम है, मनुष्य कौन सा अभागा है जो उसकी व्यवस्था सार्वभौम न बनें?

विचारशीलता हमारा स्वत्व है आप हम चुप नहीं रह सकते। विचार को चुप करना हमारे अधिकार में नहीं है। अस्तित्व में गधा, घोड़ा, कुत्ता, घास-फूस, पत्थर, लोहा, मणि-मणिक्य सभी का उपयोग है या एक दूसरे के पूरक है। तो मनुष्य होकर के पूरक न हो यह कैसे हो सकता है? चुप होना याने प्रकृति विरोधी होना, नियति विरोधी होना, विकास विरोधी होना और जागृति विरोधी होना। इस तरह चारों विधि से विरोधी हो गया और विरोध से समस्या पैदा होगा। यही हुआ।

हमारे देश में जितने लोगों ने समाधि के लिये प्रयत्न किया। इन सारे प्रयोग में जब समाधि की गवाही देने की बारी आती है तो कुछ लोगों ने गोलमोल विधि से गवाही दी भी है। किन्तु मैं समाधि पाया हूँ, समाधि का यही फलन है मैं इसका प्रमाण हूँ ऐसा बोलना बना नहीं। अब उसके बाद अवतारी पुरूष आ गया। अवतार में मनुष्य के जितने भी दस्तावेज है मनुष्य की अंतिम कल्पनाओं के प्रस्तुत करने की कोशिश की। शुभ के लिए ही किया किन्तु सर्वशुभ घटित नहीं हुआ। शुभ का मतलब समाधान, समृद्धि, अभय सहअस्तित्व से प्रमाणित नहीं हुए। अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित नहीं हुई हर मनुष्य समझदार हो गया इस बात का सत्यापन भी हर मनुष्य करने योग्य हुआ भी नहीं। सबको सुख, शांति, संतोष प्राप्त नहीं हुआ इन चीजों को ध्यान में रखकर हम असफलता की बात कह रहे हैं। इसके विपरीत भौतिकवाद ने जो कहा संग्रह-सुविधा उससे भी बात बना नहीं वो भी असफलता के कगार पर आ गया। सफलता की जो बात आती है वो मानव संचेतना से ही आती है।मानव संचेतना कहां रहता है? जीवन में रहता है, शरीर में नहीं रहता तो आपने जिस फ्रायड नाम के व्यक्ति को कहा उनको जीवन से लेन-देन है ही नहीं।

यदि काम वासना से पीड़ित होना ही जीवन मांगता है यही सच्चाई है तो यह पहले से ही कुत्ते, बिल्ली आदि जीवों में हो चुका है फिर मनुष्य के होने की क्या जरूरत थी नियति क्रम में? ऐसा पूछा जाए तो मनुष्य के

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