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ही है। मूल्य, चरित्र, नैतिकता का संयुक्त स्वरूप आचरण है। चरित्र को बताया स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष तथा दयापूर्ण कार्य व्यवहार। तन, मन, धन का सदुपयोग व सुरक्षा करना नैतिकता है। संबंधों में मूल्यांकन करना और फलस्वरूप उभयतृप्ति होना ही मूल्य है। जीवन लक्ष्य सुखी होना है, मानव लक्ष्य है समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व। लक्ष्य के लिए हम हर जगह से नैतिकता को जोड़ते हैं, नैतिकता इसी अर्थों में सार्थक होता है, इसी अर्थ में प्रायोजित हो पाते हैं। मूल्य विधि भी ऐसे ही है और चरित्र विधि में यही है। दुष्चरित्रता में दुखी होते हैं, अनैतिकता में दुखी होते हैं, मूल्यों का अनादर पर दुखी होते हैं। इस तरह से मूल्य, नैतिकता, चरित्र को निर्वाह करना ही मानवीय आचरण है, स्वभाव है। ऐसे आचरण के लिए किस चीज की आवश्यकता थी? वह अस्तित्व, जीवन एवं मानवीयतापूर्ण आचरण के ज्ञान की आवश्यकता है।

ज्ञान क्या है? जानना, मानना ही ज्ञान है। जानने, मानने के बाद ही तृप्ति बिंदु को तलाशने की बात बनती है। जब जानते नहीं, मानते नहीं तो तृप्ति बिन्दु काहे को तलाशेंगे? कहां तलाशेंगे? जैसे हम दिल्ली को जानते, मानते है तो दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाते हैं। अगर हम दिल्ली को जानते, मानते ही नहीं तो जाने का कार्यक्रम कैसे बनायेंगे? चन्द्रमा को होना मान लिया और चन्द्रमा पर पहुंच भी गये। जानने एवं मानने के तृप्ति बिंदु के लिए बहुत कुछ करते हैं। तो मुख्य रूप से करने की बात यही है अस्तित्व समझ में आने से सहअस्तित्व समझ में आता है; सहअस्तित्व समझ में आने के फलस्वरुप मानवीयता पूर्ण आचरण आता ही है, निष्पन्न होता ही है। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान में इन सबकी पुष्टि है। एक बात और है जीवन में मैंने 122 क्रियाकलापों को देखा है। इन 122 क्रियाकलापों में से मन में कितना क्रियाकलाप होता है वृत्ति में कितना, बुद्धि में कितना, आत्मा में कितना होता है इसको स्पष्ट करने की कोशिश की है। इसका क्या प्रयोजन? इससे यह प्रयोजन है एक के बाद एक जो सुनने में आया और समझ में आया तो तृप्ति बिंदु के लिए अनुभव करना बन ही जाता है, उसे दूसरों को बोध कराने की अर्हता आती है। दूसरों को बोध के बाद ही हमारी संपदा का प्रमाण है। हम दूसरों को समझाते हैं तो हमारी समझदारी का प्रमाण है। हम निरोगी है तो दूसरों को निरोगी बनाने में हमारा धन प्रमाणित होता है। हम धनी हैं दूसरों को धनी बना दें तभी हमारे धनी होने का प्रमाण होता है। इस ढ़ंग से सरलता से सामाजिक होने की रीति आती है। अभी तक मनुष्य संवेदनशीलता में ही जीता रहा है इसलिए संग्रह, सुविधा, द्रोह-विद्रोह, शोषण की बात आती रही है। इस ढ़ंग से मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का मूल रूप स्पष्ट होता है वह मूलत: जीवन की क्रिया ही है जानने के लिए मानना हुआ तो जानने के आधार पर प्रवर्तित होते हैं और पहचानने व निर्वाह करने के क्रम में हम अपने आप से न्यायिक हो जाते है, नियंत्रित हो जाते है, संतुलित हो जाते है, सुखी हो जाते है। ये ही कुल मिलाकर मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का प्रयोजन है।

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