होने का कोई लक्ष्य ही नहीं है यही तर्क निकलता है और भिन्नता क्या है उसमें? मनुष्य का लक्ष्य सुखी होना है। सुखी होने के लिए समाधान चाहिए। बिना समाधान के एक भी आदमी प्रमाणित नहीं करेगा समृद्धि को। समाधान को छोड़कर हम समृद्ध हो जाएं ये होगा नहीं। इसलिए इस पर अपने को विचार करने की जरूरत है विचार करने पर हमें जो समझ में आया मानव संचेतना की सम्पूर्णता संज्ञानशीलता और सवंदेनशीलता में व्याख्यायित होता है। सज्ञांनशीलता में दो चीज (1) जानना (2) मानना और संवेदनशीलता में दो चीज (1) पहचानना (2) निर्वाह करना होता है। संवेदनशीलता का जितना भी प्रयत्न है प्रवर्तन है वो इन्द्रिय मूलक विधि से होता है। तो इन्द्रिय संवेदना के आधार पर हम जितना भी निर्णय करते हैं वो सामयिक ही होगा। उसमें निरंतरता नहीं होगी। जैसे खाना अच्छा लगता है तो खाते ही रहें, सोना अच्छा लगता है तो सोते ही रहें, ऐसा होगा नहीं। कहने का मतलब है कि कोई इन्द्रिय व्यापार में ऐसी क्रिया नहीं है जिसको हम सतत् एक सा ले जायें, उसमें बारम्बार बदलाव आवश्यक है। परिवर्तन बिना कोई आदमी निरंतर किसी भी इन्द्रिय व्यापार में लिप्त नहीं हो सकता। यह झंझट क्यों आ गया? पूछा जाये तो मानव को संज्ञानशीलता की ओर प्रवृति होने के लिए। इसलिए व्यवस्था कितना शुभ है कि संवेदनशीलता की भंगुरता मानव के जागृत होने के लिए घण्टी है, मानव जागृति के लिए प्रेरणा है, मानव जागृति के लिए दिशा है। मेरे लिए, आपके लिए। ये कब उद्गमित हो कब आप इसको सत्यापित करेंगे ये आप ही सोचेगें। इसका दायित्व आपका ही है मेरे लिए सब आ गया। ये सब आ गया तो हमारा रोमांचित होना स्वाभाविक है। ये अपने आप में कितना व्यवस्थित बात है। थोड़ा सा विचारशील होने से, आदमी ये विचार कर ही सकता है और उसी के आधार पर हमने जो कुछ प्रयोग किया उससे स्पष्ट हो गया कि संवेदनशीलता भंगुरशील है और हम निरंतर सुख चाहते हैं। संवेदनाओं में संवेदनाओं के योग में हमें सुख भासता भी है पर सुख की अनुभुति नहीं होती। हमारी प्यास सुख की है जो अनुभव के बिना होती नहीं। अनुभव निरंतर होता ही है। अनुभव कहीं भी भंगुर होता नहीं। इस आधार पर सुख की निरंतरता के लिए ये आवश्यक था। संवेदनाओं में भंगुरता सहज है, यही व्यवस्था है। इस आधार पर हम इसका मूल्यांकन कर पाये। उसके बाद संज्ञानशीलता का मतलब निकल गया; जीवन के सभी क्रियाकलाप अनुभव मूलक विधि से अनुप्राणित होना। मानव संचेतना यही है यहीं जागृत संचेतना है। जिसको मैंने स्वयं अनुभव किया। मैं आपको अध्ययन कराता हूं। ये अध्ययन मूलक विधि से ही आयेगी। इसको बार-बार पठन-पाठन से बोध के लिए सहायक हो सकता है।
जीवन समझ में आ गया मानव संचेतना का आधार बन गया। मानवीयता पूर्ण आचरण समझ में आ गया तो परंपरा बन गया। परम्परा के लिए मानव मानवीय व्यवहार को, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझे बिना मानव परम्परा होने वाला नहीं है। मानवीय आचरण ही एक ऐसा वस्तु है जो कि सर्व देश-काल में एक सा