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और लक्षणों से मिलाकर निश्चय करेंगे कि ये ही रोग है। उसका हम चिकित्सा करते हैं सफल होता है तो हमारा समझना सही माना जाए और यदि असफल होता है तो हमारा समझना गलत है। फिर यह शोध की बात बनता है। अभी की स्थिति में देखने को मिलता है जो जैसा चिकित्सा करता है अपने को सही मानता है। सफल हो या असफल हो हम सही चिकित्सा दिये हैं यही मानता है। इसके कारण हम प्राणसंकट में फंस गए। तो पहले रोग को पहचानना, रोग के बलाबल को पहचानना, औषधियों को पहचानना, औषधियों के बलाबल को पहचानना, उनके योग-संयोग को पहचानना, उनके अनुपान प्रयोग को पहचानना, रोगी की मानसिकता को पहचानाना, उसके पथ्य परहेज को पहचानना, नियम-संयम को पहचानना, फिर उपचार को पहचानना, ये सब एकत्रित होने से समग्र चिकित्सा है। औषधि योग से सम्पूर्ण चिकित्सा हो सकता है। मणि चिकित्सा किरण-विकिरण की ही बात करता है, मंत्र चिकित्सा अपने मानसिक तरंग के ऊपर ज्यादा प्रभाव डालता है। केवल औषधि ही अधिक से अधिक रस क्रियाओं के साथ घुल करके रस परिवर्तन लाने के काम में आता है। रोगों को कैसे दूर करना है शरीर व्यवस्था जितना जानता है उतना कोई डॉक्टर नहीं जानता है। शरीर को ठीक करने की ट्रेनिंग व्यवस्था शरीर व्यवस्था में निहित है। डॉक्टर तो शरीर के साथ जबरदस्ती करते हैं। चिकित्सक को क्या करना चाहिए? शरीर व्यवस्था को बलवती बनाने के लिए शरीर अवस्था के अनुकूल रस-द्रव्यों को शरीर को देना चाहिए। यही चिकित्सक की खूबी है, यही महिमा है, यही उनका विवेक-विज्ञान है। ऐसी चिकित्सा से हम पार पा सकते हैं। अत: चिकित्सा को विशेषज्ञता से निकालकर लोकव्यापी बनाना चाहिये।

स्वास्थ्य का मतलब शरीर से होता है। संयम का मतलब मन से होता है। जो न्याय होता है, नियमित होता है, नियम के आधार पर होता है, नियंत्रण के आधार पर होता है, संतुलन के आधार पर होता है। यही संयम है। अत: संतुलनपूर्वक, न्यायपूर्वक होने वाली मानसिकता को संयम कहते हैं। उसकी क्या दवाई है? उसके लिये क्या किया जाये? उसके लिए समझदारी दवाई है। नासमझी से असंतुलन, मानसिक असंतुलन, समझदारी से संतुलन बहुत साधारण सूत्र है। समझदारी के अर्थ में संपूर्ण व्यवस्था है, संतुलन है।

भूमि: स्वर्गताम् यातु, मनुष्यो यातु देवताम् ।

धर्मो सफलताम् यातु, नित्यम् यातु शुभोदयम् ॥

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