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पड़ता है। इन्हीं गवाहियों के साथ आदिकालीन अर्थात् झाड़ के ऊपर, गुफा, कन्दराओं में झेलते हुए समय में जो मानव मानसिकता में भय सशंकता सर्वाधिक प्रकोप किया था वह यथावत् रहा है। उसके साथ प्रलोभन मानसिकताएँ धीरे-धीरे बढ़ते हुए समूचे धरती की सम्पदा का हर व्यक्ति अपने तिजोरी में बंद कर लेने की कल्पना करता हुआ स्थिति को सर्वेक्षित किया जा सकता है। इसका गवाही यही है संग्रह का तृप्ति बिन्दु नहीं है।

ऊपर कहे सम्पूर्ण विश्लेषण और समीक्षा के मूल में मानव मानसिकता ही अनुप्राणन वस्तु है। स्वर्ग-नर्क भय, प्रलोभन, सुविधा संग्रह भोग-अतिभोग इन खाकों में, इन कक्षों में, इन गतियों में मानव जाति का स्वरूप एक दूसरे के बीच विश्वास का सूत्र व्याख्या करने में असमर्थ रहा है। इसलिये सर्व मानव के परस्परता में भी सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होने सहज सत्य को, यथार्थता को, वास्तविकता को शिक्षागम्य, लोकगम्य, लोकव्यापीकरण कार्यक्रमों सहित “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” मानवीयतापूर्ण मानव मानस के लिए अति आवश्यक समझा गया है। इसीलिये, अस्तित्व सहज सहअस्तित्व रूपी ध्रुव, मानव स्वीकृत प्रामाणिकता रूपी ध्रुव के मध्य में अनुभव सहज अनिवार्यता, आवश्यकता, प्रयोजन और उसकी निरंतरता को ज्ञान सम्मत विवेक सम्मत और विज्ञान सम्मत विधि से मैनें प्रस्तुत किया है।

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