सर्वेक्षण, निरीक्षण और परीक्षण के आधार पर “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” की आवश्यकता को पहचाना गया।
रहस्यमय और सुन्दर कल्पना के आधार पर अर्थात् मनलुभावन विधि से वाङ्गमयों में मोक्ष और स्वर्ग की कल्पनाएँ प्रस्तुत की गई है। जहाँ तक मोक्ष की बात है अध्यात्म विधि से ऐसा बताया गया है कि जीवों के हृदय में आत्मा रहता है। वह आत्मा ब्रह्म में अथवा परमात्मा में विलय हो जाता है। इसके लिये ब्रह्म ज्ञान ही एकमात्र शरण स्थली बताया गया। कुछ प्रणेताओं का कहना है यह एकांत विधि से संभव है और कुछ प्रणेताओं का कहना है घोर तप से, कुछ प्रणेताओं का कहना है योगाभ्यास से, संघ के शरण में जाने से, और कुछ प्रणेताओं का कहना है योग और संयोग से, होता है। ये सब मोक्ष के संबंध में बताए गए उपायों के क्रम में इंगित कराया गया। इंगित कराने का तात्पर्य स्वीकारने योग्य तरीके से है। और भी कुछ प्रणेता लोगों का कहना है कि प्रलय काल में परिणाम मोक्ष के रूप में जीव-जगत, ब्रह्म में अथवा देवी, देवता में विलय हो जाता है। (‘वह’ का तात्पर्य ऊपर कहे गये अध्यात्म, ईश्वर, देवी, देवताएँ) सबका कल्याण करेगा तब तक ईश्वरीय नियमों के साथ-साथ जीना ही धर्म संविधान है। ऐसा बताया करते हैं।
जहाँ तक स्वर्ग की बात है इसे, इस धरती से भिन्न स्थली में संजोने का वाङ्गमयों में प्रयत्न किया। उन-उन लोक में कोई देवी-देवता का होना और उन्हीं के आधिपत्य में उनका सौन्दर्य और सुख रहने का विधि से बताया गया है। इन वाङ्गमयों में स्वर्ग को सर्वाधिक सम्मोहनात्मक और आकर्षक विधियों से सजा हुआ बताया गया है वहाँ पहुँचने के लिए जो ज्ञात स्थिति है वह पुण्य ही एक मात्र पूंजी बताई गई है। पुण्य को पाने के लिए स्वार्थी को परमार्थी होना आवश्यक बताया। अतिभोग-बहुभोगशीलता गलत है। इसी के साथ-साथ स्वर्ग की अर्हता को पूरा करने के लिए त्याग का उपदेश दिया गया। ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधावादी वस्तुओं का दान योग्य पात्रों को करने से स्वर्ग में अनंत गुणा सुख सुविधाएं मिलने का आश्वासन किताबों में लिखा गया। ध्यान, स्मरण, कृत्यों को पुण्य कमाने का स्त्रोत बताया गया। इसी के साथ-साथ अवतारी आचार्य, गुरू, सिद्ध, आश्वासन देने में समर्थ व्यक्तियों का सेवा, सुश्रुषा, उनके लिए अर्पित दान, स्तुति, कीर्तन ये सब पुण्य कमाने का विधि बताए। इसी के साथ-साथ परोपकार, जीव, जानवर, पशु पक्षीयों के साथ प्रेम, फूल-पत्ती, पेड़ के साथ दया करने को भी कहा। साथ ही मन को धोने और स्थिर करने की बातें बहुत-बहुत कही गयी है। इन सभी उपदेशों का भरमार रहते हुए भी भय, प्रलोभन और आस्थावादी कृत्यों से अधिक मानव परंपरा में इस समूची धरती में और कुछ होना देखने को नहीं मिला। अर्थात् उपदेश के रूप में जो बातें कहते आये हैं उसके अनुरूप कोई प्रमाण होता हुआ देखने को नहीं मिला। इसी समीक्षा के आधार पर ही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” की परमावश्यकता को स्वीकारा गया।