व्यवस्था में जीना बनता है, भ्रम पूर्वक अमानवीयता अर्थात् पशु मानव एवम् राक्षस मानव के रूप में जीना आंकलित होता है, जबकि हर व्यक्ति मानवीयता से परिपूर्ण होकर जीना चाहता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते हैं परंपरा जागृत होने की आवश्यकता है क्योंकि हर मानव संतान किसी अभिभावक के कोख में होता ही है। इसके उपरांत किसी धर्म संस्थान, राज्य संस्थान और किसी शिक्षा संस्थान में अर्पित होता ही है। यही संस्थाएँ जागृति का धारक-वाहक होने पर जागृत परंपरा है अन्यथा भ्रमित परंपरा है ही। जागृति सबका वर है। जागृति का स्वरूप है स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी, दूसरे विधि से मानवीयतापूर्ण आचरण जागृति है और तीसरे विधि से परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में जीना जागृति है।
इंगित किये गये तथ्यों और उनके विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जीवन ही भ्रमित रहता है, जीवन ही जागृत रहता है। जीवन जागृति और भ्रम का स्त्रोत प्रधानत: मानव परंपरा ही है। परंपरा स्वयं जागृत रहने की स्थिति में जागृति का लोकव्यापीकरण होता है। भ्रमित परंपरा होने की स्थिति में भ्रम का ही लोकव्यापीकरण होता है। इस दशक तक यही हाथ लगा है। ऐसे स्थिति में भी किसी न किसी मानव में अनुसंधानिक आवश्यकता उत्पन्न होकर स्वयं जागृत होने के उपरांत जागृत परंपरा के लिए स्त्रोत बन जाता है। भ्रमात्मक विधि से भी चित्रण-विश्लेषण के आधार पर बहुत अनुसंधान हुए हैं। जबकि जागृति सहज अनुसंधान मानव, मानव व्यवस्था मानव संचेतना सहज विधि से प्रस्तावित होना परंपरा में स्वीकृत होना, लोकव्यापीकरण होना एक आवश्यकीय स्थिति रही।
जीवन रचना के आधार पर जीवन में आत्मा अविभाज्य क्रिया होना स्पष्ट हो गई है। अस्तित्व में अनुभव ही आत्मा सहज क्रिया है। अनुभव ही दूसरे नाम से प्रत्यावर्तन क्रिया है और इसका परावर्तन क्रिया को प्रामाणिकता-प्रमाण नाम दिया है। अनुभवमूलकता आत्मा में होने वाली क्रिया है। यही जागृति है। यह जागृति सहअस्तित्व में अनुभवमूलकता आत्मा में होने वाली जागृति ही है। जागृति सहअस्तित्व में अनुभव हुई है। इसी जागृत स्थिति में होने वाली गति को प्रत्यावर्तन नाम दिया गया है। सम्पूर्ण प्रत्यावर्तन दर्शन और ज्ञान नाम से प्रतिष्ठित हैं। ज्ञान और दर्शन स्वाभाविक रूप में ओत-प्रोत रूप में वर्तमान है। सम्पूर्ण अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ही सहअस्तित्व का मूल स्वरूप है। इसका सामान्य कल्पना हर मानव में होना संभव है। कल्पना का मूल स्त्रोत आशा, विचार, इच्छा का अस्पष्ट गति रूप है क्योंकि सम्पूर्ण कल्पनाएँ परावर्तन में कार्यरूप रहना देखा जाता है। मानव ही कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति प्रकारान्तर से कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है। भ्रमित मानव द्वारा कल्पनाशीलता का सर्वाधिक प्रयोग शरीर और इन्द्रिय सन्निकर्ष के रूप में ही स्वाभाविक है। यह भ्रम विवशता है। यही कल्पनाएँ चिन्हित रूप में स्पष्ट होने के लिए तत्पर होते हैं। तभी विधिवत