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और सेतु का चित्रण हुआ। इसी से सम्बन्धित अनेकानेक वस्तु, सामग्री, यंत्रों का चित्रण मानव ने किया है।

जीवनी क्रम जीवों में वंशानुषंगीय स्वीकृति के रूप में देखने को मिलता है। यही आशा बन्धन का कार्यकलाप है। वंशानुषंगीय कार्य में उस-उस वंश का कार्यकलाप निश्चित रहता है। तभी जीवावस्था व्यवस्था के रूप में गण्य हो पाता है। ऐसे जीव शरीर जो वंशानुषंगीय निश्चित आचरण को प्रस्तुत करते हैं उनमें समृद्ध मेधस का होना पाया जाता है। ऐसी वंशानुषंगीय रचना क्रम में मानव शरीर भी स्थापित है। इसकी परंपरा भी देखने को मिलती है। उल्लेखनीय मुद्दा यही है, मानव परंपरा में निश्चित आचरण स्पष्ट नहीं हो पाया। इसका कारण मानव ने तीनों प्रकार के बंधन वश जीवों के सदृश्य जीने का प्रयत्न किया। जबकि मानव अपने मौलिक विधि से ही जीने की प्रेरणा बना रहा। इसी क्रम में आचरणों की विविधता, विचारों की विविधता, इच्छाओं की विविधता, अनेकता का कारण बना। इसलिये केवल आशा, विचार, इच्छा से मानव में मानवीयता की स्थापना नहीं हो सकी। अथक प्रयास अवश्य किया गया। ‘जीवन’ के और आयामों का प्रयुक्ति मानव परंपरा में अवश्यंभावी होने के आधार पर ही अनुभवमूलक विधि का स्थापित होना अनिवार्यतम स्थिति बन चुकी है।

मुख्यतः न्याय, धर्म, सत्य रूपी दृष्टियों की क्रियाशीलता वृत्ति में एवं फलन स्वरूप इनका साक्षात्कार चित्त में, बुद्धि में बोध और अनुभव की स्वीकृति, आत्मा में इनका अनुभव और अनुभव बोध तथा साक्षात्कार की पुष्टि चिंतन में सम्पन्न होना ही अनुभवमूलक जागृतिपूर्ण स्थिति गति होना स्पष्ट है। अतएव जीवन को विधिवत् चेतना विकास मूल्य शिक्षा विधि से मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद का अध्ययन एवं समझ लेना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है। जीवन ही दृष्टा पद में होने के कारण अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य का दृष्टा होना सहज है। इस प्रकार अनुभव करने वाली वस्तु जीवन है। अनुभव करने योग्य वस्तु अस्तित्व सहज सहअस्तित्व है। प्रमाणित करने योग्य वस्तु हरेक मानव है। प्रमाणित होने के लिये वस्तु अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था है। अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अनुभव ही परम सत्य में अनुभव।

जीवन रचना (चैतन्य पद) + जीवन क्रियाकलापों का निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण = जीवन ज्ञान।

जीवन ज्ञान के संबंध में निर्भ्रम और जागृत होने के पहले बुद्धिजीवी, विद्वान कहलाने वाले व्यक्तियों में यह शंका होना, उनकी अवस्था के अनुसार स्वाभाविक है कि जीवन ही जीवन को कैसे देख पायेगा और इसका प्रमाण क्या होगा ? इसके उत्तर में यह देखा गया है कि जीवन रचना अपने स्वरूप में गठनपूर्ण परमाणु में परमाणु के रूप में चार परिवेशीय और केन्द्रीय अंशों सहित एक निश्चित और सार्थक रचना है। इसमें हर परिवेश और केन्द्रीय अंश सभी क्रियाशील रहते हैं। इस तथ्य के रूप में नाम के लिए मध्यांश (केन्द्रीय

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