समाधान सहज अपेक्षा बलवती हुई। यह मानवाधिकार रूपी आवाज से आरंभ हुआ। यही अपेक्षा से पीड़ा तक पहुँचने का साक्ष्य देखने को मिला। मानवाधिकार, अपने विचार के अनुसार हर व्यक्ति को सामान्य सुविधा पहुँचना चाहिये, विपदाओं में सहायता और रक्षा होना चाहिये जैसे - भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल से पीड़ित लोगों को राहत पहुँचाना चाहिये। दण्ड के रूप में बहुत सारे दण्ड प्रणालियों को बंद करना चाहिये। दण्ड विधि में सुधार होना चाहिये। युद्ध मानसिकता को बदलना चाहिये। ये सब आवाज के रूप में होना देखा जाता है। कार्यरूप में बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक आवश्यकता के अनुसार रोगग्रस्त स्थिति में दवाई, विपदाग्रस्त स्थिति में खाना-कपड़ा-सुरक्षित स्थान यही सब प्रधानत: सहायता के अर्थ में सुलभ करने के कार्य को किया जाना देखा गया। यद्यपि सुदूर विगत से हर राजगद्दी विपदाओं में ग्रसित लोगों को राहत देने के हित कोष और कार्यों को बनाए रखते रहे हैं। इनमें नया क्या हुआ पूछा जाय तो - इतना ही अंतर है कि राजदरबार की सभी सहायताएँ राजा के कृपावश होता था। मानवाधिकार संस्था का इस विधा में परिवर्तन स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रस्तुत है। इनके कार्यकलापों का मूल्यांकन कर्तव्यों, दायित्वों के रूप में मूल्यांकित किया जाता है। इसलिये इसे मानवाधिकार विचारों का धारक-वाहक मानवों में विपदाग्रसित व्यक्ति पीड़ित होकर ही ऐसे संस्था को संचालित किया गया है, कहा गया है। इसके बावजूद इसमें शुभ का भाग अर्थात् सहायता भाग ही सार्थकता है।
सम्पूर्ण प्रयोगों को उत्पादन कार्य प्रयोग, औषधि कार्य प्रयोग के रूप में सकारात्मक पक्ष में होना पाते हैं। सकारात्मक पक्ष का तात्पर्य है - नित्य समाधान के अर्थ में सूत्रित होने से है। ऐसे नित्य समाधान जागृतिपूर्ण मानव परंपरा में ही लोकव्यापीकरण सर्वशुभ होना स्पष्ट है। जागृति पूर्ण विधि से भ्रमजन्य जितने भी योजना कार्यकलाप है समाधान के अर्थ में परिवर्तित होना पाया जाता है।
उत्पादन वस्तुएँ सामान्याकांक्षा, महत्वाकांक्षा में प्रयोजित होना स्पष्ट किया जा चुका है। इन्हीं विधाओं में हर औषधि और उत्पादन प्रयोग क्रियाएँ व्यवहार में प्रमाणित हो जाती है। व्यवहार में प्रमाणित होने का स्वरूप इन दोनों विधा का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता का साक्ष्य ही है।
युद्ध, शोषण और उनका प्रभाव विलय अथवा समाप्त होता है क्योंकि शोषण और युद्ध उन्माद और भ्रमित कार्यकलाप होना सिद्ध हो चुकी है। अनुभव प्रमाण हर व्यक्ति में समान रूप में होने का वैभव ही है समाधान व्यवहार में प्रमाणित हो जाता है। अनुभव का महिमा ही है सर्वतोमुखी समाधान। समाधान का तात्पर्य ही है क्यों, कैसे का उत्तर। ऐसी उत्तर में निष्ठा और उसकी अक्षुण्णता। अतएव व्यवहार में प्रयोग और अनुभव प्रमाणित होने की मर्यादा ही सार्वभौम व्यवस्था-अखण्ड समाज का स्वरूप है।
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