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रूप में, विकास सहज रूप में, जागृति सहज रूप में, रचना-विरचना सहज रूप में प्रमाणित है। सहअस्तित्व सहज रूप में सहअस्तित्व ही प्रेरणा, प्रेरित होना रहना ही फलन है। सहअस्तित्व अपने आप में नित्य प्रमाण है। क्योंकि सत्ता में संपृक्त प्रकृति निरंतर वर्तमान है ही। मानव सहज क्रिया और विचार विधियों से अन्य प्रकृतियों से अलग-अलग होना-रहना और करना-कराना संभव नहीं क्योंकि सत्ता हर काल, देश में विद्यमान है जबकि संपूर्ण प्रकृति हर काल में विद्यमान है, (हर देश में नहीं।)

देश का आधार सत्ता है यही विस्तार हैं। सत्तामय इसे हम व्यापक नाम दिया है, देश का लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई-गहराई का कहीं पता नहीं लगता, कारण-गुण-गणित विधि से देखने को नहीं मिलता। मानव कल्पना में आता नहीं। इन्हीं के नापदण्ड अथवा नाप मानव के लिए असम्भव रहा इसलिए अस्तित्व में नित्य वैभवित सत्ता को व्यापक ही कहना बन पाया। इसके पहले यह भी समझ चुके हैं कि सत्ता संपूर्ण प्रकृति के लिए पारदर्शी है। प्रकृति में पारगामी है। प्रकृति के लिए नियम है। नियम ही अथवा नियम सहित ही अस्तित्व बोध होता है यही मानव में ज्ञान है। इसी क्रम में पारगामीयता का प्रमाण संपूर्ण पदार्थ व प्रकृति अपने में नित्य क्रियाशील होने के रूप में और क्रियाशीलता के मूल में बड़े-से-बड़े, छोटे-से-छोटे वस्तुएं ऊर्जा सम्पन्न और बल सम्पन्न रहना पाया जाता है। भले ही इनके नाम को जैसे भी हम रख लें। इस प्रकार मानव में ऊर्जा सम्पन्नता ही ज्ञान सम्पन्नता है। ऊर्जा सम्पन्नता, क्रियाशीलता और हर ग्रह-गोल-ब्रह्माण्ड नियंत्रित रहना पाया जाता है। सभी नियंत्रण निश्चित अच्छी दूरी में से ही स्पष्ट होना देखा गया है। इस प्रकार सत्ता में प्रकृति सहअस्तित्व सहज रूप में विद्यमान है। यह सहअस्तित्व सहज वैभव स्वयं संपूर्ण प्रकृति सत्तामयता में, से, के लिए को प्रमाणित करने में व्यस्त है अथवा रत है और कहीं इनका अवरोध, प्रतिरोध, विरोध लवलेश भी न होकर निरंतर संगीत, निरंतर उत्सव, नित्य वैभव के रूप में ही नित्य वर्तमान है।

विकास जागृति सहज प्रेरणाओं का प्रमाण स्वयं में विकास जागृति ही है। विकास जागृति का ध्रुव बिन्दु अथवा विकास का प्रमाण बिन्दु मानव जीवन ही है। मानव अनुभवमूलक वैचारिक परिशीलन, विश्लेषणपूर्वक, प्रयोजन और प्रयोजित बिन्दुओं के रूप में जानने-मानने और पहचानने की अध्ययन प्रक्रिया-क्रिया है। विकास घटना के साथ-साथ विकास क्रम भी होना एक स्वाभाविक वैभव है। इस वैभव को हम मानव देख पाते हैं। मानव में देखने की परिभाषा सुस्पष्ट है कि जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना। इस विधि से समझने वाला मानव ही है। समझ में आने वाली वस्तु ही सहअस्तित्व ही है, इसीलिए मानव ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता के रूप में सहज है। यही जागृति का प्रमाण है। विकास गठनपूर्णता के रूप में वैभव है। जागृति दृष्टा पद जागृति एवं प्रमाणों के रूप में दृष्टव्य है। इन प्रमाणों के आधार पर ही मानव

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