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उल्काएं (धूमकेतु) समाने मात्र से अस्तित्व में वस्तु बढ़ना-घटना नहीं हुई। अव्यवस्थित वस्तुएं व्यवस्था में भागीदारी के लिए अर्पित होना अस्तित्व सहज चरित्र औैर कार्य है। ऐसी घटनाओं को यही कहा जा सकता है कि जिस ग्रह गोल में जो समा गया उसकी समृद्धि हुई। अव्यवस्थित रूप में उल्काओं (धूमकेतुओं) के होने का कारण किसी भी धरती में वैज्ञानिक विधि से नाभिकीय प्रयोगों अथवा परिवेशीय अंशों का आवेश क्रम में किये गये प्रयोगों के फलस्वरूप किसी भी धरती से आंशिक वस्तुएं शून्याकर्षण स्थिति में असीम अवकाश में होना संभव है, इसी क्रम में इन वस्तुओं को पहचाना जा सकता है। पहचानने का प्रमाण मानव ही ऐसी इकाई है जो प्राकृतिक सहज क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करता है, फलत: ह्रास विधि ज्ञान को विज्ञान कहना बनता है। यथा- मेंढक, सांप, आदमी, परमाणुओं को काटो, धरती को काटो-उड़ाओ ये सब कल्पनाएं मानव में होता है। अपनी कल्पनाओं के अनुसार प्रयोग करने का अधिकार मानव में होता है। इन्हीं प्रयोगों के चलते मानव को अथवा हर भ्रमित मानव को अव्यवस्था में जीने की विवशता को भी स्वीकार करता है। यही सर्वदृष्टिगोचर घटना अव्यवस्थित मानव ही अव्यवस्था के लिए प्रयत्न करता है यह भी बात अव्यवस्था के कारक तत्व के रूप में मानव को पहचाना जा सकता है।

इस प्रकार रचना-विरचनाएं अपने संपूर्णता के साथ ही वैभवित रहते हुए देखने को मिलता है। जैसे सूरज विरल रूप में होते हुए भी नियंत्रित रहना पाया जाता है। इसी प्रकार अनेक ग्रह-गोल विरल रूप में नियंत्रित है, कुछ ग्रह-गोल ठोस रूप में नियंत्रित है और कुछ ग्रह-गोल ठोस रूप के बाद संपूर्ण रासायनिक क्रिया-प्रक्रिया सहित रचना-विरचना के रूप में वैभवित रहना पाया जाता है। ऐसी समृद्ध धरतियों में से यह धरती जिसमें मानव शरण लिया है साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत है। अतएव अव्यवस्था के लिए कारक कोई इकाई अस्तित्व में देखने को मिला है, वह केवल भ्रमित मानव है। इस आशय से भी स्पष्ट होता है कि हर भ्रमित मानव ही जागृत होना एक आवश्यकता है।

उल्का के बारे में और भी प्रक्रियाएं देखने को मिलता है। वह है इस धरती के वातावरण में ब्रह्मांडीय किरणों और विकिरणों का संचार होता ही रहता है जिससे विकास के लिए समुचित उपकार मार्ग प्रशस्त होता ही रहता है। इसी क्रम में इसी धरती के वातावरण में स्थित विरल वस्तुएं किरण-विकिरण से ऊर्मित होकर ठोस होने के क्रम में उल्कापात भी कहा जाता है। ऊर्मित का तात्पर्य ऊर्जित और परिमित होने से है। ऐसी स्थिति में अर्थात् विरल वस्तु ठोस होने के लिए प्रवर्तित होने के क्रम में आकर्षण-विकर्षण का संयोग होना स्वाभाविक है क्योंकि सभी विरल वस्तुएं अणुओं के रूप में होना पाया जाता है। इसलिए ऐसा संयोग अनिवार्य रहता ही है। इसी पद्धति में आकर्षण-विकर्षण का दबाव में आयी हुई अणु समूह ज्वलनशील अथवा प्रकाशपुंज के रूप में दिखना भी देखा गया है। यह सभी क्रिया-प्रक्रियाएँ, व्यवस्था के अर्थ में ही

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