अपने परंपरा सहज वैभव को प्रमाणित कर पाता है। दृष्टा पद सहज विधि से जड़-चैतन्य का दृष्टा है। इसी विधि से मानव का परमाणु को देख पाना संभव हुआ है। परमाणुओं का नाम, रचना की परिकल्पना मानव परंपरा में आ चुका है। इसका लोकव्यापीकरण भी हुआ है। नाम और रचना के परिकल्पनाओं को यथावत् मानते हुए, ऐसे परमाणुएं है क्यों? और कितने हैं? वाला प्रश्न आना सहज रहा। इन्हीं प्रश्नों का सहज उत्तर रूप में अनेक प्रजातियों के परमाणु होना, उसमें से किसी संख्यात्मक परमाणु अंशों से गठित परमाणुओं में भूखापन और कुछ निश्चित संख्यात्मक परमाणु अंशों से गठित परमाणुएं अपने में अजीर्णता को प्रकाशित करते हैं। ऐसे भूखे और अजीर्ण परमाणु जितने भी हैं, वे सब विकास क्रम में हैं। ऐसे विभिन्न जाति के परमाणुएं अणु और अणु रचित रचनाओं में भागीदारी करता हुआ देखने को मिलता है। इसमें जागृति क्रम ही एक नामकरण ही है। जागृति क्रम - जागृति जितने भी जीवन मानव परंपरा में ही अध्ययन गम्य है विद्यमान हैं वे सभी इकाई के रूप में गण्य होते हैं और परमाणु व्यवस्था का आधार रूप में व्याख्यायित होते हैं। व्याख्यायित होने का तात्पर्य कार्यरत रहने से है। प्रत्येक निश्चित संख्यात्मक परमाणु अंश सम्पन्न परमाणुएं, अपने-अपने आचरणों को, सदा-सदा के लिए, एक ही प्रयोजन के रूप में अथवा एक-एक निश्चित प्रयोजन के रूप में बनाए रखते हैं। विकास क्रम में पाये जाने वाले सम्पूर्ण प्रकार के परमाणुएं अणुबंधन एवं भारबंधन पूर्वक रचना-विरचना कार्यों को सम्पन्न करते हैं। ऐसी रचना और विरचनाएं भौतिक और रासायनिक प्रभेदों से होना पाया जाता है। भौतिक रचनाएं प्रधान रूप में मृद, पाषाण, मणि, धातुओं के रूप में; रासायनिक रचनाएं, अम्ल, क्षार, पानी; प्राणावस्था की संपूर्ण रचना और विरचना, जीवास्था की संपूर्ण शरीर रचना और विरचना तथा ज्ञानावस्था के संपूर्ण शरीर रचना और विरचना के रूप में दृष्टव्य है।
प्रत्येक रचनाएं विरचना के ओर और विरचनायें रचना के ओर उन्मुख रहते ही है इसको हम ऊपर कहे हुए भौतिक-रासायनिक स्वरूप में देख पाते हैं। इस क्रम में धरती का भी रचना-विरचना होने की परिकल्पना आता है। धरती के संबंध में हर ग्रह गोल अपने स्थिति में एक रचना के रूप में ही होते हैं चाहे वे ठोस रूप में हो या विरल रूप में हो। ये दोनों स्थिति में दिखने वाली रचनाएं प्रत्येक स्थिति शून्याकर्षण के आधार पर अक्षुण्ण बने रहते हैं। ऐसी दोनों प्रकार की रचना में से ठोस रचना के उपरान्त ही रासायनिक रचना के लिए तत्पर होना पाया जाता है। इस धरती में रासायनिक रचनाएं अपने चरमोत्कर्षता पर्यन्त रचना क्रम को बनाए रखा है। यह धरती स्वयं इस बात की गवाही है। रासायनिक रचनाएं न हो ऐसे भी धरती हैं। ऐसे भी रचनाएं ग्रह-गोल के रूप में है और ठोस रूप न हो परन्तु केवल विरल रूप हो ऐसे भी ग्रह-गोल हैं। उक्त तीनों स्थितियों में हर ग्रह-गोल अपने निरंतरता को बनाएं रखते हैं क्योंकि अस्तित्व न तो घटता है न ही बढ़ता है। इसी आधार पर ग्रह गोल की अक्षुण्णता को स्वीकारना बनता है। ऐसी स्वीकृति की आवश्यकता और अधिकार दोनों मानव में होना पाया जाता है। किसी ग्रह गोल में और कोई अव्यवस्थित