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रुपए में 5 किलो चावल मिलता था। अभी 5 रुपए में एक किलो चावल से 35 रुपए में एक किलो चावल मिलता है। चावल, सोना और सीमेंट उस समय भी उतना ही मूल्य वाहक रहा है, जितना आज है। परिवर्तन केवल प्रतीक मुद्रा का रहा है। इस प्रकार द्रव्य गुण अपने में, आदिकाल में भी वही रहे हैं। आधुनिक काल में भी उतना ही है। यंत्रगति बदलते आई, परिवर्तन होते आए, मानव का ध्यान गति की ओर गया तो दूरश्रवण, दूरदर्शन और दूरगम्य जैसे गतियाँ मानव को निकट लाने का कार्य किया। इसी क्रम में एक दूसरे की मानसिकता को भी पहचानने की आवश्यकता निर्मित होता रहा। विविध प्रकार से प्रक्रिया जारी रहा। अंततोगत्वा निरंतर बदलने वाली प्रतीक मुद्रा अथवा पत्र मुद्रा को पूँजी के रूप में स्वीकारने के लिए बाध्य हुए। जो कुछ भी परिवर्तन होता है, मूल्यों में, प्रतीक मुद्रा का ही परिवर्तन होता है। वस्तुओं का कोई भी परिवर्तन नहीं होता। सारे यंत्र पदार्थावस्था की वस्तुओं से बन पाई।

जब से प्राणावस्था के अन्न-वनस्पति-फल-फूल जल्दी और बड़ा, ज्यादा होने के उद्देश्यों से जितना भी प्रयत्न किया गया, जिसको बहुत गंभीर और जटिल प्रक्रिया मानते हुए उसे संरक्षित कर रखते हुए, इतना ही नहीं उसे विशेषज्ञता के खाते में अंकित करते हुए, उसके सम्मान से प्रलोभित होते हुए जो कुछ भी कर पाए। उन सबके परिणाम में यही देखने को मिला एक गुलाब के फूल को बड़ा बनाने के क्रम में बड़े से बड़े बनाते गए। उसके लिए अधिकाधिक हवा और पानी ग्रहण करने की प्रवृत्ति दिए। फलस्वरूप गुलाब का फूल बड़ा हो गया। उसके गुणवत्ता को नापा गया तब यह पता चला वह अपने स्वरूप में रहते समय जितना भी छोटा या बड़ा था, भौगोलिक और जलवायु के अनुसार, देखी गई थी, उसी के समान उसका गुणवत्ता मिला। इसी प्रकार अंगूर में, टमाटर में, फूलों में और अनाजों में देखा गया। सभी अनाज में पुष्टि तत्व, तैल तत्व प्रधान होना पाया जाता है। इसे कितना भी बड़ा बनाया जाए, मूल पुष्टि तत्व और तेल तत्व उतना का उतना ही रह जाता है। कुछ अनाजों में यह देखा गया है पहले जो सुगंध बनी रहती थी इन प्रक्रियाओं के साथ गुजरने से अपने-आप सुगंध समाप्त हो गई। इन सभी घटनाओं को ध्यान में रखने पर पता चलता है, हम क्रम से भ्रम के बाद भ्रम की ओर चल दिए। यही घटना कृषि के साथ भी हुई। भ्रम का तात्पर्य ही होता है - अधिमूल्यन, अवमूल्यन, र्निमूल्यन। जैसे मानव को समझने के क्रम में र्निमूल्यन, प्रतीक मुद्राओं का अधिमूल्यन, उपयोगिता मूल्य का अवमूल्यन किया गया एवम् मानव को समझने के मूल में जीव कोटि का मानते हुए झेल लिया। यही निर्मूल्यन होने के फलस्वरूप भ्रम के शिकंजे में कसता ही गया। नैसर्गिकता का अवमूल्यन - मानवेत्तर जीव कोटि, वन, खनिज के मूल्यों का नासमझी वश दुरुपयोग किया। वन और खनिज के दुरुपयोगिता क्रम में धरती का अवमूल्यन हुआ। मानव जब वैज्ञानिक युग में आया तब से धरती में निहित वन-खनिज संसार पर आक्रमण तेजी से बढ़ाया। उन-उन समय में इसको उपलब्धियाँ मान ली गई। इसके परिणाम में आज की स्थिति में परिवर्तन पाते हैं अथवा दुष्परिणामों को

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