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है। अतएव सभी अवस्थाएँ अपने-अपने में मौलिक होना स्वाभाविक है। मानव भी अपने मौलिकता को पहचानने-निर्वाह करने, जानने-मानने के क्रम में झेलता ही रहा। भले ही भ्रमपूर्वक क्यों न हो भ्रम की पीड़ा से पीड़ित होने के उपरांत निर्भ्रमता समीचीन है ही। अतएव निर्भ्रमता प्रमाणों में से एक प्रमाण आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था भी है। इसे हृदयंगम करने के उपरांत हर मानव परिवार में समृद्धि पूर्वक जीना सहज है। इस विधि से जागृति क्रम में मानव चलकर जागृति और उसकी निरंतरता के पद में संरक्षित, नियंत्रित हो पाना स्पष्ट हुआ। इससे मानव पूरकता विधि से मानवेत्तर प्रकृति के साथ सहअस्तित्वशील होने का स्वरूप अध्ययनगम्य होता है।

सम्पूर्ण अस्तित्व ही पूरक विधि में सहअस्तित्वशील होना स्वयं में आवर्तनशीलता का आधार है। मानव के हर क्रियाकलाप प्रधानत: दो विधा में पूरकता क्रम में स्वयं में आवर्तनशीलता को प्रमाणित करता है। जिसमें से पहली विधा नैसर्गिकता और धरती के साथ प्राकृतिक नियमों को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना परमावश्यक तत्व है। प्राकृतिक नियम अपने आप में पदार्थ, प्राण, जीव, ज्ञानावस्था एक दूसरे के लिए पूरक होने के स्वरूप में देखने को मिलता है।

पदार्थावस्था, प्राणावस्था के लिए पूरक होना सर्वविदित तथ्य है। धरती पर ही सभी अन्न-वनस्पति-वन सम्पदा का होना देखा है। यही प्राणावस्था की वस्तुएं हैं और ये सभी निष्प्राणित होने के उपरांत इसी धरती में समाता हुआ हर मानव देखता है। इसके साथ-साथ और तथ्य भी जुड़े हुए होते हैं। यह धरती अपने-आप में अथक प्रयास और प्रक्रिया सहित ऋतु संतुलन व्यवस्था को प्राप्त किया। तभी इस धरती पर वर्षा, ठंडी, गर्मी की निश्चित दिनों का, मासों का गणना मानव में प्रचलित रूप में ज्ञातव्य है। ऋतु संतुलन की महिमा ही है इस धरती में सम्पूर्ण अन्न, वनस्पतियाँ स्वयं स्फूर्त विधि से अलंकृत, सुशोभित हुआ करते हैं। जैसे शिशिर ऋतु में पत्ते पक जाना, वसंत ऋतु में पल्लवित होना, कुसुमित होना, वर्षा ऋतु में अपने में परिपुष्ट होना देखा जाता है। इस विधि से वन सम्पदाएँ समृद्ध होता हुआ देखने को मिलता है। धरती पर अन्न का उपज मानव के संयोग से सम्पन्न हो पाता हैं। मानव, अपने लिए उपयुक्त आहार वस्तुओं को अनेकों प्रयासों के उपरांत पहचान पाया और उसकी उपज विधियों में अथवा उत्पादन विधियों में पारंगत होता आया है और परंपरा में कृषि कार्य की आवश्यकता, प्रवृत्ति, पारंगत होने की परम्परा परिवार, गाँवों में स्थापित होती हुई देखने को मिली। आज तमाम शहर, नगर का उदय होने के उपरांत भी कृषि कार्यों का सर्वाधिक धारक वाहकता गाँव में ही देखा जाता है। इस विधा में अन्नोपज में विपुलता को पाने के लिए वैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ भी अनेक प्रयोगों को कर गुजरा। अन्न वनस्पतियाँ अपने आप में नैसर्गिक-प्राकृतिक विधि से जो गुणों को स्थापित कर ली थीं, वही गुण कितने भी मोटा, बड़ा, ऊँचा बनाने की क्रियाओं-स्थितियों

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