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रचना और जीवन का सहअस्तित्व के प्रमाण रूप में जीवनी क्रम को जीव संसार में प्रमाणित करने का अधिकार अध्ययन सुलभ हुआ है।

ज्ञानावस्था का मानव जीवन तथा समृद्ध मेधस युक्त सप्त धातु से रचित शरीर रचना का संयुक्त रूप में होना समझा गया है। इसके साक्ष्य में जीवन अपने जागृति को मानव परंपरा में प्रमाणित करने का सुखद-सुन्दर, समाधानपूर्ण स्थिति-गति की समीचीनता को समझा गया है और संप्रेषित किया गया है। यही मानव संचेतना की महिमा और गरिमा है। इसी के फलन में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और अखण्ड समाज सार्वभौम रूप में सफल होना समीचीन है।

जागृत संचेतनापूर्वक ही मानव अपने दायित्व-कर्तव्यों को मानवीयतापूर्ण आचरण सहित निर्वाह करने की आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता को समझने के उपरान्त ही इस समाजशास्त्र में संप्रेषित किया गया है। इसी के आधार पर संबंध-मूल्य-मूल्यांकन सहज रूप में ही मानव तथा नैसर्गिक संबंध में सफल होने की विधियों को इसमें अध्ययन करने की विधियों से प्रस्तुत की गई हैं।

संबंध-मूल्य-मूल्यांकन, उभयतृप्ति के आधार पर ही मानव सहज सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य सहित उत्सवित होने के समीचीन प्रकारों को आहार-विहार, व्यक्तित्व, स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन की स्थिति-गति का अध्ययन प्रस्तुत है और सम्पूर्ण उत्सव मानव व्यवहार, कर्म, अभ्यास, अनुभवों के आधार पर ही सम्पन्न होने के तथ्य को उद्घाटित किया गया। विश्वास है कि व्यवहारवादी समाजशास्त्र के अध्ययन से मानव को भोगोन्मादी समाज और उसकी संकीर्णतावश घटित पीड़ा से मुक्त होने का अवसर मिलेगा। सार्वभौम व्यवस्था और स्वतंत्रतापूर्वक इस धरती में हर मानव स्वायत्त होंगे और संपूर्ण परिवार समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्ववादी सूत्र से सूत्रित होंगे। वर्तमान में विश्वास और भविष्य के प्रति आश्वस्त होगा और इसकी अक्षुण्णता सदा-सदा मानव परंपरा में बना ही रहेगा।

जय हो ! मंगल हो !! कल्याण हो !!!

ए. नागराज

प्रणेता : मध्यस्थ दर्शन

अमरकंटक

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