उल्लेखों को देखा जा सकता है, कि सभी धर्म ग्रन्थों में अज्ञान स्वयं ही दुख है। अज्ञान को ज्ञान में, पाप को पुण्य में, स्वार्थ को परमार्थ में परिवर्तित करने के लिए उपाय, उपदेशों को प्रस्तुत किया है और राजगद्दी, जान-माल की सुरक्षा का आश्वासन देता है। अभी भी देता है साथ में सीमा सुरक्षा क्रम अपनायें है जिसमें सभी अपराध को वैध मान लिए हैं। दोनों विधा का भरपूर आश्वासन उस समय के लिये आवश्यक रहा जब मानव चौमुखी (चारों प्रकार के) भय से त्रस्त रहा है। उस समय में आश्वासन व शरण की आवश्यकता रही। तत्कालीन तपस्वीयों ने तत्कालीन जनमानस पीड़ा को सांत्वना प्रदान की। यहाँ उस समय में आश्वासन और शरण की आवश्यकता रही। जनमानस में एक नया उमंग तैयार हुआ जैसा पहले से नस्ल रंग के आधार पर मानव से मानव का खतरा मंडराता ही रहा। अन्य प्रकार का भय सताता ही रहा है। इसी बीच जंगल, डण्डा, शिला और धातु युग तक पहुँच चुके थे; कृषि, पशुपालन, पर्णपत्र, कुटीरों तक पहुँच चुके थे, ऐसा समझ सकते हैं।
जब से राज्य धार्मिक राज्य बने, या धर्म और राज्य प्रभावी हुआ तब से अभी तक धर्म संविधान यथावत् बना ही है। धर्म संविधान के अनुरूप राज्य व्यवस्था और कार्य सम्पन्न होता रहा है। (कालान्तर में वैज्ञानिक युग में धन और सामरिक शक्तियों पर आधारित राज्य व्यवस्था की कल्पना उदय हुई।) धर्म संविधान ईश्वर प्रसन्नता के आधार पर सम्पन्न होता रहा। हर राष्ट्र किसी न किसी धर्मावलंबी रहा ही है। हर राजा किसी न किसी धर्म प्रतिबद्धता से बंधे रहे। अधिकांश देश व राष्ट्र में जो राजा का धर्म रहा, वही प्रजा का धर्म माना जाता था। स्वर्ग-नरक, ईश्वर की खुशी-नाराजगी के मिसाल इसके लिये उन-उनके तरीके सलूकों, मान्यताओं को सही एवं अन्य धर्मों के तरीकों आदि को गलत मानते रहे। तरीके, प्रतीकों की भिन्नता ही धार्मिक संप्रदायों की परेशानियों का कारण बना रहा। इसी मान्यतावश धीरे-धीरे कुछ लोगों को धर्म से अरूचि होती रही। कालान्तर में वैज्ञानिक युग प्रारंभ हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधानों की सार्थकता सटीकता जनमानस तक पहुँचने लगी। फलस्वरूप स्वर्ग में वर्णित अधिकांश सभी वस्तुयें पैसे से खरीदने की स्थिति बनी। प्रतीक मुद्रा पत्र मुद्राओं के रूप में मुद्रा प्रचलन बना। प्रतीक मुद्रा संग्रह के लिये सरल हो गया। आस्थाओं में ढिलाई व्यक्तियों में बढ़ते आया। इसका प्रमाण राजगद्दियाँ, धार्मिक राज्यनीति से आर्थिक राज्यनीति में अन्तरित हुआ। धार्मिक राज्यनीति पर आधारित राज्यनीतियाँ बदलता गया। अभी सर्वाधिक राज्य आर्थिक राज्य के रूप में अन्तरित हो चुके हैं। इसी क्रम में जनमानस आर्थिक लाभ की ओर बढ़ा; व्यापार पहले से ही लाभवादी रहा है। धर्म गद्दियाँ भी मुद्रा संग्रह के पक्ष में उतर गयी। मुद्रा के आधार पर अधिकांश ज्ञानी, विद्वान, परमार्थी होने की