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अध्याय - 1

मानव परंपरा में अनेक समुदाय और सामाजिक
पराभव एवं वैभव सहज संभावना

प्राचीन समय से अन्य शब्दों की तरह समाज शब्द भी प्रचलित रहा है। समाज शब्द का ध्वनि निर्देश तब बनता है जब इसके पहले एक निश्चित वस्तु (वास्तविकता) हो, उसे नाम चाहिए जैसे - हिन्दू समाज, मुसलमान समाज, ईसाई समाज, आदि। ये सब अपने को श्रेष्ठ मानते रहे हैं।

श्रेष्ठता का मूल तत्व पुण्य कार्यों को मानने, अनुसरण करने से है। पुण्य कर्म पूजा, आराधना, प्रार्थनाएँ है। इन पुण्य कर्मों, प्रतीकों, पुण्य स्थलियों में विविधताएँ है। इन सबके मूल में परम पावन वस्तु ‘ग्रन्थ’ है। ये सभी ‘ग्रन्थ’ अलग अलग नामों से ख्यात है। इन सभी ‘ग्रन्थों’ में स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य का वर्णन है। इन पावन ग्रन्थों में जितनी भी वाणियाँ हैं, वे सभी ईश्वर, आका, देवदूत की वाणी अथवा आकाशवाणी माने गये हैं। यह सर्वविदित है।

इस प्रकार समाज शब्द के पहले अवश्य ही कोई धर्म, सम्प्रदाय, जाति, समुदाय का योग होना देखा गया है।

इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय मुद्दा यही है कि इन सभी पावन ग्रन्थों के अध्ययन से सर्वतोमुखी समाधान की अपेक्षा रही है। यह अपेक्षा अभी भी यथावत् है। यही अग्रिम शोध का प्रवर्तन कारण है अर्थात् पुनर्विचार के लिए पर्याप्त मुद्दा है। ऐतिहासिक गवाही के अनुसार ये सब समाज, धर्म और राज्य का दावेदार है। प्राचीन समय से अभी तक (बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक) धर्म व राज्य के इतिहास के अनुसार मतभेद, युद्ध, कहानियाँ लिखा हुआ है। ये सब इतिहास वार्ता से सकारात्मक विधि से पता चलता है कि राज्य और धर्म पूरकता विरोधी हैं। जबकि मानव कुल में सर्वशुभ और उसकी निरन्तरता आवश्यक है। यह भी अनुसंधान का मुद्दा है।

आदिकाल से सभी धर्म और राज्य जनसामान्य के सुख-चैन का आश्वासन ग्रन्थों और भाषणों में देते रहे हैं। धर्म व राज्य गद्दियाँ सदा ही सम्मान का केन्द्र रहे हैं। लोक सम्मान इनमें अर्पित होता ही आया है। बीच-बीच में विद्रोह भी घटित होता रहा व दोनों गद्दियों में चौमुखी असमानता देखने को मिलता है।

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