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है, इसके संतुष्टि को और उसकी अनिवार्यता को अनुभव किया गया है। फलस्वरूप व्यवहारवादी समाजशास्त्र की परिभाषा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में सहअस्तित्व और जागृति सूत्र के आधार पर व्याख्यायित हुई। जिसका स्वरूप शैक्षणिक विधि से सर्वसुलभ होने के साथ-साथ उसके सुयोग्य पद्धति प्रणाली सहित स्वायत्त मानव के रूप में प्रमाणित होने की सम्पूर्ण विधियों को बोध और हृदयंगम किया गया। बोध का तात्पर्य अनुभव की रोशनी में अथ से इति तक वस्तु के रूप में स्वीकारने से है। हृदयंगम का तात्पर्य विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान से है। विज्ञान का तात्पर्य कालवादी क्रियावादी निर्णयवादी विधि से और विवेक का तात्पर्य मानव प्रयोजन रूपी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में पहचाना गया है। इसे सर्वविदित कराने की इच्छा से इस व्यवहारवादी समाजशास्त्र को संप्रेषित किया है।

इस व्यवहारवादी समाजशास्त्र में विज्ञान और विवेक सम्मत विधि से जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण को मानव प्रयोजन जागृति, विकास और पूरकता जैसे सार्वभौम वस्तुओं के योग-संयोग विधि सहित अध्ययनगम्य कराया गया है। इस तथ्य की भी सूचना, परिचय प्रस्तुत किया गया है कि परमाणु ही अस्तित्व में निरंतर पाये जाने वाले व्यवस्था का आधार है। इसी के साथ-साथ अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाई अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था होना प्रतिपादित किया गया है। इसी क्रम में परमाणु ही विकासपूर्वक अर्थात् परमाणु अंश बढ़ने की विधि से ‘परमाणु तृप्ति’ के बिन्दु को पहचाना गया है। परमाणु तृप्ति के लिए जितने परमाणु अंशों की आवश्यकता है उससे अधिक होने पर अजीर्णता को और कम होने की स्थिति में भूखे की संज्ञा में आना देखा गया है। साथ ही तृप्त परमाणु ही जीवन पद में वैभवित होना देखा गया है। यही चैतन्य इकाई है, जिसमें अक्षय शक्ति, अक्षय बल होना स्पष्ट हुई है। ऐसे अक्षय शक्ति, अक्षय बल को मानव में अध्ययनपूर्वक प्रमाणित होने के सम्पूर्ण विधियों को समझा गया है। जिसका सामान्य अध्ययन इस व्यवहारवादी समाजशास्त्र में प्रस्तुत किया गया है।

व्यवहार में सामाजिक होने की अभीप्सा जीवन सहज रूप में हर जीवंत मानव में देखने को मिलती है। इसी आधार पर व्यवहारवादी समाजशास्त्र की आवश्यकता को अनुभव किया गया है। यही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था को प्रतिपादित, सूत्रित, व्याख्यायित करने का एक ध्रुव रहा है। दूसरा ध्रुव अस्तित्व सहज सहअस्तित्व को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना रहा है। अतएव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के अध्ययन उपरान्त हर व्यक्ति अपने में, से, के लिये

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