व्यवहारवादी समाजशास्त्र : परिचय
इसके लिए कार्यक्रम
अखण्ड समाज - सार्वभौम व्यवस्था की अवधारणाओं को स्थापित करना इस “व्यवहारवादी समाजशास्त्र” का उद्देश्य है। इसके लिये समुदायवादी समाज कहलाने वाले मूल कारणों को और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या रूप में जीना समझा गया है।
मानव शरीर रचना रूपी नस्लों में विविधता।
- रंगों में विविधता।
- मानव अपने आस्थावादी विचारों से ऊपर कहे दो विविधता से उत्पन्न भय और प्रलोभन से मुक्ति अथवा राहत पाने के अर्थ में किये गये प्रयासों में अन्तर्विरोध और विविधता।
- सुविधा-संग्रह में विविधता और अन्तर्विरोध।
- दर्शन, विचारों में यथा - आदर्शवादी और भौतिकवादी विचारधाराओं में रहस्य, अनिश्चयता, अस्थिरता से ग्रसित होने के आधार पर अन्तर्विरोध और विविधताएं।
- इन्हीं पाँच कारणों के आधार पर सम्पूर्ण प्रकार के व्यवहार, आचरण, उत्सवों में परस्पर अन्तर्विरोध होने के कारण ये सभी मिलकर, जुड़कर, घटकर भी मानव संतुष्टि का आधार नहीं बन पायी। जैसे -
सर्वमानव को न्याय चाहिए, न कि फैसला।
- सर्वमानव को व्यवस्था चाहिये, न कि शासन।
- सर्वमानव को समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व चाहिये न कि अतृप्ति से ग्रसित संग्रह, सुविधा एवं रहस्य।
- इन आशयों के सकारात्मक पुष्टि और उसके प्रमाण ऊपर कहे गये दोनों प्रकार की विचारधाराओं से बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक सार्थक होना संभव नहीं हुआ। इसी रिक्ततावश मानव मन में विविध प्रकार की पीड़ा का कारण होना स्वाभाविक रहा। ऐसी पीड़ा के आधार पर ही अनुसंधानपूर्वक यथा अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन में पारंगत होने के उपरान्त ही, सहअस्तित्ववादी परिपक्व सार्थक विचारों के आधार पर विज्ञान सम्मत एवं विवेक सम्मत विधि से सर्वमानव में जो व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबी होने का आशय रूपी ध्रुव