है। शुद्धतः इसका मूल रूप मानव अपने स्वत्व रूपी मानवीयता अथवा मानवत्व में, से, के लिए जागृत होना ही है। मानवत्व मानव को स्वीकृत वस्तु है। मानवत्व पूर्वक ही मानव अपने गौरव और वैभव को स्थिर बनाना चाहता है ऐसी मानवत्व की अपेक्षा को विविध प्रकार से मानव व्यक्त करता ही है। इसी क्रम में बहुमुखी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन होने के आधार पर बहुमुखी कार्य सम्पन्न होना भी एक आवश्यकता रहा है। ऐसी सुदृढ़ आधार पर ही सुदूर विगत से ही कम से कम चार आयामों में अपने परंपरा को बनाये रखे है। जैसा शिक्षा, संस्कार, विधि और व्यवस्था। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था है। इसे सभी समुदायों में स्वीकारा हुआ और निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है चाहे सार्थक न हो। इससे सुस्पष्ट हो जाता है भले ही मानव कुल अनेक समुदायों में बंटे क्यों न हो यह चारों अथवा चहुँ दिशावादी परंपरायें सभी देशकाल में सभी समुदाय में देखने को मिला। इन चारों आयामों में मानवीयता को समावेश कर लेना ही मानवीयतापूर्ण परंपरा का तात्पर्य है। जैसा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, विधि एवं व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता ही मानव परंपरा में अखण्डता का सूत्र है।
मानव परंपरा का संतुलन अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रामाणिक होना सहज है। यह दोनों अविभाज्य रूप में प्रतिष्ठा और गरिमा है। मानव कुल का संतुलन सर्वतोमुखी समाधानपूर्वक ही सम्पादित होना पाया जाता है क्योंकि सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न परिवार संतुलित रहना पाया गया है। हर परिवार में एक से अधिक व्यक्तियों का होना सर्वविदित है अथवा सम्मिलित कार्य-व्यवहार का होना पाया जाता है। परिवार की परिभाषा भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है यथा परिवार में प्रस्तुत अथवा सम्मिलित सभी व्यक्ति एक दूसरे के साथ संबंध को पहचानते हैं एवम् मूल्यों का निर्वाह करते हैं, मूल्यांकन करते हैं और उभय तृप्ति पाते हैं और परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन कार्य में सभी पूरक होते हैं। इन्हीं आधारों पर समाधान और समृद्धि का प्रमाण प्रस्तुत हो पाता है। मानव का परिभाषा समाहित रहता ही है यथा मनाकार को साकार करने वाला मनः स्वस्थता सहज प्रमाण प्रस्तुत करने वालों के रूप में होना देखा गया है।
उद्देश्य - समाज परिभाषा में पूर्णता की ओर निर्देश है, अस्तित्व में परमाणु का विकास और जागृति सहज अध्ययन क्रम में गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता और इसकी निरंतरता को देखा गया है। देखने का तात्पर्य समझने से ही है। परमाणु का वैभव को, अस्तित्व में व्यवस्था की मूल इकाई के रूप में इनके कार्यकलापों को देखा गया है। यह जड़-चैतन्य प्रकृति के संबंध में