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छिपाने में एक दूसरे का सहायक होना सर्वाधिक रूप में देखा गया है। ऐसे समुदाय दो प्रकार के आधारों पर स्पष्ट हुए है। पहला आहार सेवन, वस्त्र, साज सुविधाओं का प्रस्तुतीकरण, आगन्तुकों अतिथियों के साथ संबोधन प्रस्तुति या विवाह आदि घटनाओं का निर्वाह विधि प्रक्रिया, गायन, रचना, गाने की लय, ताल, नृत्य इन आधारों पर संस्कृतियों को पहचाना गया है। दूसरे क्रम में संस्कृति को पहचानने का प्रधान कार्य उपासना, आराधना, प्रार्थना अभ्यास, उनमें विन्यास कृत्यों (कर्मकाण्डों)। पहले विधा में बताये गये सभी विन्यास दूसरे क्रम में भी रहता है। दोनों विधा विविधता सहित होना पाया जाता है।

संस्कृति के साथ सभ्यता का पहचान हर समुदाय स्वीकारा है। सभ्यता विशेषकर आगन्तुक व्यक्ति के साथ किया गया संबोधन परस्पर परिचय क्रम, परस्परता में घटित घटना, हाट (बाजार), सभा, सम्मेलनों में राजधर्म, संबंधों में आशय, मार्गदर्शन, निर्देशन का अनुसरण सभ्यता के मूल में स्पष्ट है। संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था का नाम हर परंपरा, समुदायों के मूल में होना पाया जाता है। धर्म संविधान और राज्य संविधान दोनों संविधानों में शक्ति केन्द्रित है, दिखती है। सभी राज्य (आर्थिक राज्यनीति सम्पन्न संविधान) संविधान शक्ति केन्द्रित शासन के रूप में है। इसका व्यवस्था सुविधावादी होना भी देखा गया है।

धर्म संविधान के अनुसार भी द्वन्द्व, प्रायश्चित, बहिष्कार रूप में शक्ति केन्द्रित रहा है। यहाँ धार्मिक राज्य (ईश्वरीय राज्य) के रूप में मान्यतायें प्रभावित रहा है। हर संविधान के अनुसार सम्प्रभुता, प्रभुसत्ता, अखण्डता, अक्षुण्णता का दावा करते रहते हैं अर्थात् सभी संविधानों का प्रभाव सीमा सहित रहना पाया जाता है। उस सीमा में कोई समुदाय रहता ही है।

समुदाय चित्रण स्वरूप निम्नतः है :-

  • <strong>नस्ल रंग -</strong> भौगोलिक परिस्थिति और वंशानुषंगीयता।
  • <strong>रंग नस्ल -</strong> संचेतना हर रंग नस्ल वाले मानव में जीवन शक्ति, बल, लक्ष्य समान रूप में रहती ही है इसलिये ये सब मानव के रूप में पहचानने योग्य है और आवश्यकता है।
  • <strong>जाति -</strong> मानव की जाति एक, कर्म अनेक हैं। जबकि विभिन्न आजीविका के आधार पर आज विभिन्न जाति मानते हैं।

मत - प्रामाणिकता को प्रतिपादित करने के क्रम में सम्मतियों का सत्यापन मत है। जबकि वाद-विवाद को आज मत माना जाता है।

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