सर्वाधिक ऐसे उपदेश करने वाले व्यक्ति को हम इसी स्वरूप में पाते हैं। जैसे - आस्थावादी प्रलोभन के अनुसार अपूर्व यान, वाहन, भोगद्रव्य साधन सभी बिना कुछ किये मिलने का आश्वासन प्रकारान्तर से सभी धर्म गाथाओं में, उपदेशों में बताया जाता है। इसके आगे भी स्वर्ग सुख से आगे मोक्ष सुख को बताया है। उसे अनिर्वचनीय कहकर छोड़ दिया है। उसके लिये भी विविध साधना शैली बता चुके हैं। विद्वान मेघावियों को विदित है। चाहे आस्थावादी बनाम स्वर्गवादी प्रलोभन हो, अथवा वस्तुवादी प्रलोभन हो, कामना तृप्ति, अथवा इन्द्रिय लिप्सा के अर्थ में क्यों न हो, मूल मानसिकता एक ही है। इसमें मौलिक अन्तर क्या है? मौलिक अन्तर यही मूल्यांकन करने को मिला कि आस्थावादी प्रलोभन इस शरीर यात्रा में अथवा इस शरीर के द्वारा अपराध कार्यों में, हिंसक कार्यों में भागीदारी को अस्वीकार किया रहता है। ऐसी आस्थावादी प्रलोभन का उपदेश देने वाले ढेर सारी वस्तुएँ एकत्रित किये ही रहते है। इसे उपदेश का फल, ईश्वर का देन मानते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आस्थावादी प्रलोभन से प्रभावित व्यक्ति थोड़े समय तक अथवा अधिक समय तक संग्रह, सुविधा, हिंसा कार्यों से दूर रहना पसंद किये रहते हैं। वही व्यक्ति जब उपदेशक हो जाता है, उस समय में संग्रह-सुविधा को हक मान लेता है, फलस्वरूप उससे संबंधित सभी गुण उनमें होना पाया जाता है। नकारात्मक पक्ष के गुणों का भी होना पाया जाता है। अन्य जो संग्रह-सुविधा भोग से लिप्त रहते हैं उसे धार्मिक उपदेशों और उसमें भरोसे के अनुसार पुण्य का फल माने ही रहते हैं। इसी कारणवश संग्रह-सुविधा सम्पन्न वर्ग, संग्रह-सुविधायें सम्पन्न उपदेशकों का सम्मान करते आये हैं। जिनके पास संग्रह-सुविधायें नहीं है उनमें से कुछ हतप्रभ होकर ऐसे उपदेशकों को सम्मानित करने के लिये इच्छाओं से सम्पन्न होते हैं, और कुछ लोग सम्मानित करने योग्य न होने के कारण अपने को कोसते भी हैं, धिक्कारते भी हैं, कुण्ठित भी होते हैं। इस विधि से उपदेश ग्रंथ सम्मान के योग्य हुआ है। ऐसे ग्रन्थों के आधार पर किये जाने वाले उपदेशकों को सम्मानित करने की परंपरा बनाये हैं। इसी परंपरा क्रम में जिस उपदेशक का उपदेश गद्दी, संग्रह, सुविधा सम्पन्न रहता है उसी को सर्वाधिक पुण्य का फल माना जाता रहा है। ये सब पाप-पुण्य का नजरिया या आस्थावादी प्रलोभन का प्रारूप बताया गया है।
इस धरती पर सुविधा संग्रह प्रक्रिया का अध्ययन करने से पता चलता है कि संग्रह-सुविधायें प्रौद्योगिकी व्यापार से होता हुआ देखने को मिलता है। व्यापार और प्रौद्योगिकी के लिए धरती के ऊपर और धरती में निहित सम्पदा ही एकमात्र स्रोत होना सबको दिखती है। धरती के ऊपर वन खनिज होते हैं, धरती के अन्दर खनिज होते हैं। ऊपर जो खनिज और वन रहते हैं उनमें से कुछ आवर्तनशील रहते हैं, कुछ आवर्तनशील होते नहीं। जैसे वन-वनस्पतियाँ बीज-वृक्ष नियम विधि