इस शताब्दी के दसवें दशक तक मानव ने अनेक समुदाय या भाँति-भाँति समुदाय परंपरा के रूप में अपने-अपने को प्रकाशित किया है। जिसमें जागृति का संकेत भय, प्रलोभन, आस्था, प्रिय हित, लाभ, सुविधा, संग्रह, भोग इन नौ बिन्दुओं में अवसर आवश्यकता और चित्रण के रूप में प्रस्तुत हो पाया।
प्रिय = इन्द्रिय सापेक्ष प्रवृत्ति प्रक्रिया।
हित = स्वास्थ सापेक्ष प्रवृत्ति प्रक्रिया।
लाभ = ज्यादा लेने कम देने की प्रवृत्ति प्रक्रिया।
भय = भ्रम = अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोष।
प्रलोभन = संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग प्रवृत्ति प्रक्रिया।
आस्था = किसी के अस्तित्व को न जानते हुए मानना (स्वीकारना)।
सुविधा = सौन्दर्य कामना सहित, इन्द्रिय लिप्सा समेत उपभोग करना।
संग्रह = प्रतीक मुद्रा को भविष्य में सुविधा भोग कामनापूर्वक कोष रचना रूप प्रदान करना।
भोग = भय, शंका, रहस्य मानसिकता सहित वस्तु और यौन सेवन मानसिकता और कार्य-
व्यवहार।
इन परिभाषाओं के ढाँचे-खाँचे में सुदूर विगत से आयी समुदाय परंपराएँ सकारात्मक पक्ष के रूप में चित्रित, व्यवहृत किये जाने का साक्ष्य समाजशास्त्र में (प्रचलित) देखने को मिलता है। इसी के साथ समुदाय-समुदायों के बीच वर्तमान घटनाओं के रूप में घृणा, उपेक्षा, युद्ध का भी जिक्र है। इसी के साथ शोषण, अपहरण आदि का भी उल्लेख है। ये सब नकारात्मक पक्ष है। फिर भी इसमें ग्रसित रहने के लिए सभी समुदाय मजबूर है।
समुदायों के रूप में मानव पहचानने का आधार और उनका सीमा चित्रण :-
इस धरती पर मानव में भिन्नताओं सहित परिवार एवं समुदाय को अपनत्व दायरा की मानसिकता के रूप में विकसित होना पाया जाता है। उल्लेखनीय घटना यह है कि द्वेष मुक्त समुदाय एवं परिवार नहीं हो पाये हैं। हर मानव समुदाय को समाज कहता हुआ, समाज कल्याण एवं विकास का भाषण प्रवचन करता है। परिवार का हित चाहता है। परिवारगत कुकर्मों, अत्याचारों को