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  • <strong>पंथ -</strong> किसी मत/धर्म के आनुषंगीक निश्चित व्यक्ति का पहचान सहित आस्था रखने वाली परंपरा।
  • <strong>परंपरा -</strong> पूर्णता के अर्थ में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पंथ या परंपरा हो, जबकि आज रूढ़ियों को परंपरा माना जाता है।
  • <strong>धर्म = धारणा -</strong> जिससे जिसका विलगीकरण न हो। मानव धर्म सुख है। सुख, मानव से विभाजित नहीं किया जा सकता। सुख = समाधान = व्यवस्था + व्यवस्था में भागीदारी। वक्तव्य - सुदूर विगत से धर्म का भाषा प्रयोग हुई। धर्म अपने मूल रूप में किसी भी शास्त्र में प्रतिपादित हुआ नहीं। धर्म के लक्षणों को विभिन्न जलवायु में विभिन्न समुदाय धर्म मानते हुए आज तक चल रहे हैं।
  • <strong>भाषा -</strong> सत्य भास जाए यही <strong>भाषा</strong> है। भाषा के प्रयोग में हम संप्रेषणा शब्द प्रयोग करते हैं। पूर्णतया प्रेषित हो जाना <strong>संप्रेषणा</strong> का तात्पर्य है। इस प्रकार भाषा संप्रेषणापूर्वक परंपरा में सार्थक होना उसकी महिमा है। जबकि सत्य मानव कुल में प्रमाणित न होने के कारण भ्रमित रूप में अपने इच्छा, कामना और कल्पनाओं को एक दूसरे तक पहुँचाने के लिये भाषाओं का प्रयोग किया गया।
  • <strong>देश -</strong> इस धरती पर किसी सीमित भौगोलिक परिस्थिति सहित क्षेत्रफल है।

वक्तव्य - इस क्षेत्रफल में निवास करने वालों को उस क्षेत्र का नाम दिया जाता है।

  • <strong>धन -</strong> संग्रह के आधार पर। शोषण पूर्वक ही संग्रह होता है।
  • <strong>पद -</strong> भ्रमित रूप में मान्य शक्ति केन्द्रित शासन में भागीदारी।

जागृति क्रम में दो पद (पशुमानव, राक्षसमानव) और जागृति पूर्वक तीन पद है। अस्तित्व में चार पद हैं - प्राणपद, भ्रांतपद, देवपद और दिव्यपद (पूर्णपद) हैं। जिसको सटीक देखा गया है।

ऊपर वर्णित क्रम में विविध समुदायों के रूप में पनपता हुई परंपरायें अपने-अपने परंपरानुगत विधि से पीढ़ी से पीढ़ी को क्या-क्या सौंपते आये और इस बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में जीती जागती पीढ़ी को क्या से क्या सौंप गया है। इन मुद्दों पर एक सामान्य अवलोकन आवश्यक है।

परंपरा विगत में मानव, मानव के साथ क्या किया? मानव मानवेत्तर प्रकृति के साथ क्या किया? यही दो अवलोकन का मुद्दा है।

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