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ऐसी कल्पना ने ही हमको भयभीत, निरीह बनाया। मानवीयतापूर्ण आचरण में हर मानव अपने में स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार के रूप में जी पाता है। इस तरह जीने से हमारे तन, मन, धन का सदुपयोग, सुरक्षा करना भी बनता है और जब ये दोनों सजते हैं तो उस स्थिति में संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति भी अपने आप से प्रमाणित होता है। इस ढंग से मूल्य, चरित्र, नैतिकता के संयुक्त रूप में मानव का आचरण व्याख्यायित होता है। तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग सुरक्षा होना ही नैतिकता है। संबंधों को पहचानने की विधि से ही मूल्यों का निर्वाह होता है। जैसे कोई भी आदमी अपने पिता के संबंध को, माता के संबंध को गुरू के संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानते हैं। मूल्य (भाव) अपने आप बहने लगते हैं फलस्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है। जहाँ संबंधों को पहचानते नहीं हैं वहाँ कोई मूल्यों का बहाव होता नहीं है। उदाहरण रेल के डब्बे में कोई बैठा है एक अजनबी आता है तब उनका हाथ पैर अपने आप लंबा हो जाता है इच्छा होती है यहाँ कोई न बैठे। वहीं थोड़ी देर बाद कोई पहचान का आदमी आ जाता है तो अपने आप से उठकर खड़े हो जाते हैं उनको बैठा देते हैं इस तरह संबंधों की पहचान एक बड़ा काम है। संबंधों के बारे में अध्ययन प्रयोजन के आधार पर होता है। जैसे मां का संबंध पोषण प्रधान रूपी प्रयोजन के आधार पर, पिता का संबंध संरक्षण प्रधान रूपी प्रयोजन के आधार पर अध्ययन किया जाता है। ये संबंध सभी पहचानने में आ जाये उसके बाद मानव गलती नहीं करता। बिना संबंध पहचाने गलती करेगा ही।

प्रचलित वर्तमान राजकीय तंत्र, धर्म तंत्र प्रचार माध्यमों को देखने से पता लगता है सब अपराधियों के लिए बना है। ये दोनों अपराधियों को तारने में अपने-अपने ढंग से लगे हैं। ये सब तंत्र मानव को समझदारी दे नहीं पाया। हर मानव समझदार होना चाहता है। ईमानदार होना चाहता है। ईमानदारी का रास्ता दिखा नहीं पाये। हर आदमी जिम्मेदार होना चाहता है। जिम्मेदारी का प्रयोजन परंपरा में दे नहीं पाये। लोगों ने शुभ की कामना की है सबका शुभ हो, सबके परिवार हो, सबका मंगल हो, इस प्रकार की बातों को तो सब लोग दोहराए है। किन्तु कहने मात्र से, दोहराने मात्र से, तो रास्ता मिलता नहीं। जिस किताब में लिखा रहता है सबका शुभ हो उसी में लिखा रहता है सारा संसार झूठा है और असली माँ-बाप ईश्वर है उन्हीं के शरण में जाना चाहिये इससे कल्याण हुआ नहीं। असली माँ-बाप के पास जाने के बाद मानव पाया नहीं तब कल्याण कहाँ-किसका होगा। इस सब बात से कोई प्रयोजन निकलता नहीं। समझदार होने पर ही आदमी का प्रयोजन स्पष्ट होता है। सभी संबंधों में प्रयोजन निहित रहता ही है। क्या प्रयोजन है? समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को सफल बनाने के अर्थ में ही प्रयोजन है। सारे संबंधों का प्रयोजन इसी से जुड़ा रहता है इसमें जुड़ने से परंपरा बन जाती है। समझदारी की ही परंपरा होगी नासमझी की कोई परंपरा अखण्ड होगी नहीं। इसलिए अभी तक कोई परंपरा बनी नहीं सर्व शुभ के अर्थ में। वर्तमान शिक्षा

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