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में जब व्यक्ति पढ़कर तैयार होता है स्वयं को सबसे बुद्धिमान मानता है। संसार को मूर्ख मानता है। ऐसे स्नातक हर वर्ष करोड़ों बनते हैं। एक-एक ऐसे स्नातक को कैसे समझदार बनाया जाये? कहां से इतने डाक्टर लाया जाये जो इनको ठीक कर सके।

स्वयं समझे बिना कोई स्वीकार करता नहीं। इसका गवाही मैं स्वयं हूँ। हमारे परिवार में वेदमूर्ति, बगल में वेदमूर्ति, पूरा गाँव में वेदमूर्ति किन्तु हमें परिवार के लोग वेद नहीं पढ़ा पाये क्योंकि हम पढ़ना नहीं चाहे। किन्तु, इस धरती पर समझदार हर मानव बनना चाहता है। इस आधार पर हर मानव समझदार होने की पूर्ण संभावना है। इस प्रवृत्ति को देखकर ही इस अभियान को शुरू किया। हर मानव का समझदार बनाने का भी अरमान है इस सच्चाई के साथ शुरूआत किये हैं। इस शुरूआत से जो लोग समझ चुके हैं उनको राहत मिली है उनमें वे सब गुण पैदा हुए हैं जिन्हें हम मानवीयतापूर्ण रूप में पहचानते हैं।

नैतिकता का मूल तत्व जो तन, मन, धन रूपी अर्थ को प्रयोजन के अर्थ में नियोजित करना है। जिसे सदुपयोग कहते हैं। सदुपयोग दो अर्थों में होता है - 1. सेवा और उत्पादन में तन, मन, धन का नियोजन। 2. संबंधों के साथ प्रयोजन को सफल बनाने के लिए तन, मन, धन का अर्पण-समर्पण रूप में सदुपयोग।

जिसका सदुपयोग किया उसका सुरक्षा हो गया। जिसके लिये हम सदुपयोग किया अर्थ का उसका सुरक्षा हुआ। यही हमारा सदुपयोग और सुरक्षा का अर्थ है। समाधान के लिये, समृद्धि के लिये, वर्तमान में विश्वास पूर्वक व्यवस्था के लिये, सहअस्तित्व के लिये तन-मन-धन रूपी अर्थ को नियोजित करने से उसका सुरक्षा हुआ। फलस्वरूप हमारे धन का सदुपयोग हुआ। सदुपयोग हुये बिना सुरक्षा और सुरक्षा के बिना सदुपयोग होगा नहीं। सुरक्षा सदुपयोग सदा सदा के लिए शुभ होता है। सद्प्रवृत्तियों में हमारे तन, मन, धन को नियोजित करने की आवश्यकता बनी रहती है, हमारे जागृति के अर्थ में है।

सहअस्तित्व में कोई समझदार इकाई हो सकती है तो वह मानव ही है। मानव, जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में प्रमाणित है। मानव शरीर की वंश परंपरा है। जीवन सहअस्तित्व सहज रूप में जीवन गठनपूर्ण परमाणु के रूप में विद्यमान है इसमें मानव का कोई योगदान नहीं है। शरीर में मानव परंपरा का योगदान है। यही व्यवस्था है। जीवन और शरीर के संयोग की आवश्यकता केवल जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के अर्थ में ही है और जीव शरीरों में समझदारी प्रमाणित करने की व्यवस्था नहीं है। इसलिये मानव संस्कारानुषंगीय इकाई के रूप में समझ में आता है। अस्तित्व में मानव को छोड़कर तीनों अवस्थायें परस्पर पूरक है। मानव भी पूरक होने की आवश्यकता हो गई है। पूरकता के रूप में ही मानव का व्यवस्था में जीना बन पाता है यह व्यक्तिवाद, भोगवाद के आधार पर कभी नहीं बन पाता है। विगत के दोनों चिंतनों भौतिकवाद और विरक्तिवाद से मानव व्यक्तिवादी हो गया। भौतिकवादी विधि से व्यक्ति

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