इस विधि से जीवन शक्तियों का कितना भी उपयोग करें वे खत्म होती नहीं है। उनको तादाद में बांध नहीं सकते। बांधने जाओगे तो बांधने वाला ही विकृत होगा। इस प्रकार बुद्धिवाद से भी हम कैसे गिरवी करते हैं, दास बनते हैं, शोषण का आधार बनाते हैं इसका नमूना है यह। मैं समझता हूँ यह मानव विरोधी है, सहअस्तित्व विरोधी है बुद्धि को शोषण का आधार बनाकर, द्रोह-विद्रोह का आधार बनाकर, बपौती बनाकर, हमारा बुद्धि के लिए आपको टैक्स देना है ऐसा बताकर हम समाज बनाने की घोषणा करते हैं। यह क्या सच्चा हो सकता है? यह सोचने का मुद्दा है। मेरे अनुसार यह सर्वथा मिथ्या है। बुद्धि को कोई सीमित किया नहीं जा सकता और सब मानवों की बुद्धि अक्षय है इसलिये उसे सीमा में पुस्तकों में बांधा नहीं जा सकता। हम जितने वाङ्गमय लिखा हूँ उससे भी बहुत बड़ा में स्वयं को अनुभव किया हूँ। जितने भी यंत्र बने हैं उससे मैं बड़ा हूँ। मानव जाति बड़ा है ही। मानव ने ही सब किताबों को लिखा है और सब किताबों से बड़ा हर मानव है। यहाँ पर आये बिना हम अपनी सद्बुद्धि को प्रयोग करेंगे यह हमको दिखता नहीं।
इन सब चर्चाओं से शायद सोचने पर सब अपने में औचित्यता को स्वीकार कर सकते हैं। स्वीकारने के क्रम में यही अंतिम बात आती है कि हमको समझदार बनना ही है। समझदार बनने में कोई तकलीफ नहीं है। नासमझी के प्रयोग में ही तकलीफ है। देखिए, यह धरती अपने में एक है। इसको हम खण्ड-प्रखण्ड में बांटकर हम राष्ट्र के रूप में देखते हैं। इतना ही नहीं उन हर एक खण्डों के चारों ओर सेना खड़ी कर देते हैं जब चाहे तब हाथापाई करते हैं, झड़प करते हैं। धरती तो टुकड़ा-टुकड़ा हो नहीं सकता, होने के पश्चात कोई बच भी नहीं सकता। उसको टुकड़ा ही मानकर (जबकि वह टुकड़ा नहीं है) क्या हम सच्चाई करते हैं। यह एक सोचने का मुद्दा है। हमारा झूठ कैसे घर किया है इसका उदाहरण है यह। दूसरा मिसाल मानव को अलग-अलग करने के लिए रंग और नस्ल के आधार पर हमने सोचा, जैसा जानवरों में होता है। यह कैसी बुद्धिमत्ता है। मानव का मूल्यांकन समझदारी के आधार पर होता है ना कि नस्ल और रंग के आधार पर। इसको हम पहले भी अच्छी-अच्छी घटनाओं के रूप में देख चुके हैं। जैसे - दास युग का विरोध, राजयुग का विरोध। राज युग से प्रजा तंत्र के लिये मानव संक्रमित हुआ है किन्तु समाजवादी या मानववादी व्यवस्था के आधार पर व्यवस्था करने के लिये अभी तक हम निष्णात हो नहीं पाये हैं। हम मानते हैं कि निष्णात हो गये है। झूठ यहां है हम मानते हैं हम पा गये। क्या पा गये? सुविधा पाये हैं। युद्ध, द्रोह, शोषण तो है ही, तो झूठ का स्रोत कहाँ-कहाँ है? राष्ट्र की सोच (धरती विखण्डित है ऐसा सोचना) संविधान, शक्ति केन्द्रित शासन। राष्ट्र सर्वोपरि, संविधान सर्वोपरि यह माना गया। संविधान का मर्म क्या निकला शक्ति केन्द्रित शासन। शक्ति केन्द्रित शासन क्या है? गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, युद्ध को युद्ध से रोकना। सामान्य सुविधाओं का उपक्रम भी कुछ संविधानों में किया है। जिसमें यह सोचा गया है सब के पास पैसा हो तो वह जी लेगा, लड़ लेगा।