इसमें तात्विक ज्ञान हो गया। तात्विक ज्ञान के लिए भी तर्क चाहिए, व्यवहार ज्ञान के लिए भी तर्क चाहिए। पहली उपलब्धि यही है अपना मूल्यांकन, परिवारजनों का मूल्यांकन किस आधार पर होगा। मूल्यों के आधार पर, संबंधों के आधार पर, उभयतृप्ति के आधार पर। व्यवहार में हम न्यायिक हो गये यही प्रमाणित कर सकते हैं। तब आदमी मानव हो गया। पहले मानव हुआ फिर समझदारी के आधार पर स्वायत्त हो गया और छः गुण आ गये :-
1. स्वयं में विश्वास
2. श्रेष्ठता का सम्मान
3. प्रतिभा में संतुलन
4. व्यक्तित्व में संतुलन
5. व्यवहार में सामाजिक
6. व्यवसाय में स्वावलंबी
ये छह अर्हताएं जब मेरे समझ में आयी तब मैं स्वयं को स्वायत्त अनुभव किया हूँ। वैसे ही हम परिवार में अपनी समझदारी, समृद्धि को प्रमाणित करने में समर्थ रहे। इसी सत्यतावश आपके सम्मुख प्रस्तुत हुए। हर व्यक्ति सज्जन बनना चाहता ही होगा, सज्जनता के लिए न्यूनतम अर्हता न्याय है। न्याय को जैसा मैं देखता हूँ वह संबंध, मूल्य, मूल्यांकन और उभयतृप्ति ही है। इसके बाद हमारे समझ में बात आयी है कि हर व्यक्ति जन्म से ही न्याय का याचक है। सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है। सत्य वक्ता होता ही है, इस आधार पर शिक्षा में क्या होना चाहिए? हर मानव संतान को सत्य बोध होना चाहिए, सही कार्य-व्यवहार करने के लिए अभ्यास होना चाहिए, विधि होनी चाहिए, न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित होनी चाहिए। तीनों चीजें ही शिक्षा-संस्था में हो सकती हैं और तब मानव परंपरा अपने आप बन जाती है। इससे पहले मानव परंपरा बनेगी नहीं। मानव परंपरा की शुरूआत न्याय से ही करना पड़ेगा। न्याय के लिए मुख्य मुद्दा है नैसर्गिक संबंध जो शाश्वत है एवं मानव संबंध निरंतर है। जब मानव कोई गलती कर लेता है तब मार्गदर्शन के लिए कहाँ जाता है? हमने देखा है परिवार में कोई व्यक्ति जो न्याय को सत्यापित किया तो वो मार्गदर्शन देगा। परिवार में न हो तो गांव में कोई होगा जो मार्गदर्शन देगा। गांव में भी न हो तो देश धरती में कोशिश करेगा यह सहज प्रवृत्ति है। यह स्वाभाविक है कि हर मानव में कहीं न कहीं सुधार की प्रवृत्ति है।