के आधार पर किया और पूरा पड़ा नहीं इसलिए परंपरा बनी नहीं। इसलिए तुलन में से प्रिय, हित, लाभ को न्याय, धर्म, सत्य में विलय करने की आवश्यकता है।
अर्थात् न्यायपूर्ण प्रिय, न्यायपूर्ण हित और न्यायपूर्ण समृद्धि। न्याय दृष्टि से लाभ की जगह समृद्धि आ जाती है। न्यायपूर्वक उत्पादन से हम समृद्धि के मंजिल पर पहुँचते हैं और संग्रह विधि से हम शोषण के मंजिल पर पहुँचते हैं। शोषण से हम स्वयं भी क्षतिग्रस्त होते हैं और संसार को भी क्षतिग्रस्त करते हैं। इसे सटीकता पूर्वक अध्ययन करने की आवश्यकता है, स्वीकारने की आवश्यकता है और इस पर दृढ़ संकल्प को स्थापित करने की आवश्यकता है। इसलिए मानवीय शिक्षा की आवश्यकता है। जिससे हर बच्चा स्वायत्त होगा और छः सद्गुणों से पूर्ण होगा :-
1. स्वयं में विश्वास 2. श्रेष्ठता का सम्मान
3. प्रतिभा में संतुलन 4. व्यक्तित्व में संतुलन
5. व्यवहार में सामाजिक 6. व्यवसाय में स्वावलंबी
ऐसा स्वायत्त मानव, परिवार में अपने आप समाधान समृद्धि को प्रमाणित करेगा फलस्वरूप समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र अपने आप से निष्पन्न होता है। व्यवस्था और समाज का उद्गम स्थली है परिवार। इसको मैंने देखा है यह भली प्रकार से सार्थक होता है इसके बाद आता है व्यवस्था का स्वरूप। समझदारी के बाद व्यवस्था अपने आप उद्गमित होता ही है, बहता ही है।
हर अभिभावक अपने बच्चों को सिखाता ही है उसके बाद शिक्षण संस्थाओं में सिखाते हैं फिर राजगद्दी, धर्मगद्दी अपने ढंग से सिखाते हैं। इस शिक्षा से हम जो भी शिक्षा पाये उससे मानव बने नहीं हैं । अब विचार इतना ही है, प्रयत्न इतना ही है, प्रमाण इतना ही है कि हम मानव बन सकें। मानव परंपरा बन सकें। इससे फायदा होगा नैसर्गिकता का संतुलन और मानव में न्याय स्थापित हो जायेगा। न्यायपूर्वक व्यवस्था में जीना ही है। यह कौन सा बड़ा दुर्गम कार्य है? किन्तु मानव को इसकी आवश्यकता महसूस होने की जरूरत है। अभी तक जो भी किये हैं संवेदनाओं के आधार पर किये हैं। जिससे हमारी जरूरत पूरी होने वाली नहीं इसी से धरती बर्बाद हो गयी आदमी तो बर्बाद है ही। इसलिए आबाद होना है तो मानवीयता को पहचानना ही होगा। मानवीयतापूर्ण व्यवस्था में जीना होगा और उसकी निरंतरता की संभावना है। वर्तमान में मुद्दा है कि नैसर्गिकता के साथ अपराध रूक जाये। व्यवस्था का स्वरूप है :-
1. शिक्षा संस्कार में भागीदारी
2. न्याय सुरक्षा में भागीदारी