भी जानने में आता है। वस्तु कैसा है ? यह जानने का स्वरूप है। इसी से क्यों और कैसे का उत्तर स्वयं-स्फूर्त विधि से निर्गमित होता है। मानने का तात्पर्य प्रयोजन पहचानने के अर्थ में सार्थक होता है। जैसे-अस्तित्व सहज नित्य स्थिति को जानना, सहअस्तित्व प्रयोजन सूत्र को पहचानना स्वाभाविक होना पाया गया।
अस्तित्व सहज सहअस्तित्व को पहचानने की क्रिया-स्वरूप ही निर्वाह करने के अर्थ को प्रमाणित कर देता है। इस प्रकार जानना, मानने के लिये उत्सव और उत्साह है; जानना-मानना, पहचानने के लिये उत्सव और उत्साह है; जानना-मानना-पहचानना, निर्वाह करने के लिये उत्सव और उत्साह है। यह सर्वमानव में हृदयंगम और स्वीकार्य योग्य सूत्र है।
पहले इस बात को भी स्मरण दिलाया गया है कि मानवेत्तर प्रकृति में भी पहचानने, निर्वाह करने की प्रक्रिया विधि नित्य वर्तमान है। इसी विधि सहज वैभव का प्रमाण पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्थाओं में देखने को मिलता है। देखने का तात्पर्य समझने से है। मानव ही अस्तित्व में दृष्टापद प्रतिष्ठा को प्रमाणित करता है, प्रमाणित करने योग्य है, प्रमाणित करने के लिये बाध्य है ही। समझना ही बाध्यता है।
जो कुछ भी समस्याएँ है उसे समाधान में परिणित कराने के लिये मानव सहज आवश्यकता प्रवर्तन हमें इस तथ्य पर ध्यानाकर्षित करता है कि हर मानव समाधान की ओर ही अपने को उन्मुख बनाये रखना चाहता है जबकि समाधान सर्वसुलभ हुआ नहीं रहता है। जैसा भ्रमित मानव परंपराओं में शरीर यात्रा को आरंभ किया हुआ हर मानव, न्याय की अपेक्षा करता ही है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है, अपने से ही स्वयं-स्फूर्त विधि से सत्य वक्ता रहता ही है यह हर मानव संतान में सर्वेक्षित रहता ही है। इसे हर मानव सर्वेक्षित करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मानव परंपरा जागृत रहने की स्थिति में हर मानव संतान में सत्यबोध सहज अध्ययन वस्तु व प्रणाली, मानवीयतापूर्ण आचरणकारी प्रमाण सम्पन्न शिक्षण और संस्कार सहित व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी होने की स्थिति समीचीन है। ऊपर बताये स्वरूप में परिणित करना जागृत मानव परंपरा का सहज क्रियाकलाप होना देखा गया है। यह परंपरा स्वयं जागृत न रहने की स्थिति में भी सत्यवक्ता होना, सही कार्य-व्यवहार करना, न्याय सहज आवश्यकता को स्वीकार करना हर मानव में देखने को मिलता है। यही इस सर्वेक्षण का अति उत्तम निष्कर्ष है। इस निष्कर्ष के आधार पर मानव परंपरा जागृतिपूर्ण परंपरा के रूप में प्रमाणित होने की आवश्यकता है ही। इसे प्रमाणित करने की आवश्यकता-आकांक्षा-आशा अथवा अभीप्सा के रूप में हर मानव में देखने को मिलता है। अभीप्सा का तात्पर्य अभ्युदय के लिए इच्छा से, अभ्युदय का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान से है। आशा का तात्पर्य जीने की आशा सहित सुखी होने की आशा से है। आकांक्षा का तात्पर्य अपने स्वयं