हैं जिस मूहुर्त में इस धरती पर परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था जागृति के साथ स्थापित हो जाता है। इसी के साथ अखण्ड समाज का सहज रूप सर्वविदित और प्रमाणित हो जाता है।
हठधर्मिता जो व्यक्तिवादी (अहमतावादी) मानसिकता के लिये जिम्मेदार है उसके मूल में समाज विरोधी सूत्र सदा ही पनपते आई है। क्योंकि समाज, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था जो अस्तित्व सहज है, इसे स्पष्टतया समझने के स्थिति में हम यह पाते हैं कि यह अस्तित्व सहज सहअस्तित्व सूत्र ही है। सहअस्तित्व सूत्र के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था हमें विदित हुआ है। इस तथ्य के आधार पर मानव जब तक जागृतिपूर्ण होता है तब तक भले ही ऊपर कहे हुए वितण्डावाद रहे आये। जैसे ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था परंपरा में प्रमाणित होते हैं, व्यक्तिवादी अहमताएँ अपने आप ही विलय को प्राप्त करते हैं।
व्यक्तिवादी अहमता को शक्ति केन्द्रित शासन, उसमें अधिकारों को वर्तने के लिये प्रावधानित अधिकारों को प्रयोग करता हुआ, जितने भी विसंगतियाँ अधिकारी मानस और जनमानस के बीच दूरी तैयार होती जाती है, यह सब समस्या का ही ताण्डव है। समस्या में ग्रसित होने के फलस्वरूप या विवश होने के फलस्वरूप ही व्यक्तिवादी होना पाया जाता है। जैसे - अधिकारवाद, भोगवाद, भक्तिवाद और विरक्तिवादी। ये सब व्यक्तिवादी अस्मिता के रूप में ही पूर्वावर्ती वाङ्गमयों में स्वीकारा गया है। इन चारों स्थितियों में पहला मुद्दा है अधिकारवाद। इसे विसंगतियों के अर्थ में स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के आनुषंगिक स्पष्टीकरण के क्रम में ही शक्ति केन्द्रित शासन अनेक समुदायों के द्वारा किसी भूखण्ड के क्षेत्र में पनपता हुआ देखने को मिलता है। यह सर्वविदित तथ्य है। इसी को राष्ट्र और राज्य कहा जाता है। उस भू-क्षेत्र में रहने वाले उन संविधान को सम्मान करने वाले व्यक्ति समुदाय होना स्वाभाविक है। उनका भाषा-संस्कृति में समानता का भी अपेक्षा बनी रहती है। इसी क्रम में राष्ट्रभाषा का भी संविधान में एक प्रावधान बनी रहती है। प्रधान रूप में सभी संविधान अपने अपने धर्म, कर्म, उपासना, अभ्यास, संप्रदाय के स्वतंत्रता की घोषणा और गलती, अपराध और युद्ध को उसी-उसी प्रकार से रोकना प्रधान उद्देश्य रहता है। सही-गलती को बताने वाला राजा और गुरू के संयोग से होता रहा। अभी भी कहीं-कहीं ऐसा होता भी होगा। अधिकांश भू-भागों में अर्थात् राज्य-राष्ट्रों में जनप्रतिनिधियों के मानसिकता के अनुसार सही, गलती, अपराध और न्याय जो कुछ भी निर्णय के रूप में स्वीकारे रहते हैं - न कि ‘वस्तु’ वास्तविकता के रूप में।