समाधान का धारक-वाहक प्रत्येक मानव ही होना देखा गया है। मानव में भी केवल ‘जीवन’ को धारक वाहक होना देखा गया है। जीवनापेक्षा सदा ही जागृति मूलक होता है। जागृति जीवन सहज आवश्यकता मानव सहज परंपरा में निरंतर समीचीन है जिसके लिये हर मानव का जिज्ञासु रहना सुस्पष्ट है। अतएव जीवनापेक्षा मानवापेक्षा अपने आप में नित्य प्रभावी होना देखा गया है इसी के साथ साथ सर्वमानव में यह प्रभाव होना देखने को मिलता है। जीवनापेक्षा का प्रमाण ही मानवापेक्षा और मानवापेक्षा का प्रमाण ही जीवनापेक्षा का होना देखा गया है।
सहअस्तित्व में ही मानव, जीवन सहज जागृति को प्रमाणित करना सहज, सुंदर, समाधान और सुखद होना देखा गया है। सहअस्तित्व में हर परंपरायें (हर अवस्था, हर पद) नित्य वैभव के रूप में अथवा निरन्तर वैभव के रूप में तभी प्रमाणित हुई है जब परम्परायें अपने में समृद्ध और आवर्तन शील होती हैं। इसी क्रम में मानव परम्परा भी अनुभवमूलक विधि से जीवनापेक्षा व मानवापेक्षा सहज आवर्तनशील रूप में वैभवित होना ही सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज का होना समीचीन है। यह भी मानव परंपरा में आवश्यकता के रूप में देखा गया गया है कि मानव में सार्वभौमता की अपेक्षा स्वीकृत है। इसे दूसरी विधि से आशा के रूप में सार्वभौमता हर मानव में, हर परम्परा में, हर समुदाय में, हर जाति में, पंथ, मत, सम्प्रदायों में समाहित है ही। इसे सार्थक बनाने की इच्छा भी इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक में आवाजों के रूप में सुनने को मिलता है। इसे सार्थक बनाने के लिए अनुभवात्मक अध्यात्म मानस अनिवार्य रही है।
अनुभवात्मक अध्यात्मवादी विचार और व्यवहार स्वाभाविक रूप में सहअस्तित्व को प्रमाणित कर लेना ही है। यह कार्य मानव परंपरा में ही संपादित होना स्वाभाविक है। क्योंकि मानव इकाई ही संस्कारानुषंगी अभिव्यक्ति होना स्पष्ट किया जा चुका है। अभिव्यक्ति का तात्पर्य भी सर्वतोमुखी समाधान के रूप में सार्थक होना देखा गया है। ऐसा समाधान मानव परंपरा सहज हर आयाम, दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्यों में समाधानित होने के अर्थ में सार्थक होने और विशालता की ओर गतिशील होने के रूप में देखा गया है। यही जागृति विधि साधना का अभीष्ट व प्रमाण है। मानव अपनी जागृति सहज प्रमाणों को प्रमाणित करना ही अभ्यास का तात्पर्य है। अभ्यास अपने सार्थक स्वरूप में सर्वतोमुखी समाधान के लिये किया गया अनुभव, विचार, व्यवहार समुच्चय है।
अनुभव मानव सहज अपेक्षा एवं वैभव है। मुख्य रूप में इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक स्वीकृतियाँ आबाल-वृद्ध पर्यन्त प्रभावित रहता ही है। इसके मूल्यांकन के लिये और समीक्षा के लिये मूल्य मूलक व लक्ष्य मूलक सिद्धांत, सूत्रों व व्याख्याओं के प्रति मानव का प्रमाणित होना आवश्यक है। क्योंकि इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक विधियों, कार्यों और इसके लिये आवश्यकीय साधनों की संग्रह विधियों से कोई भी समुदाय परंपरा