इसी के साथ-साथ नि:श्रेयस (निरंतर श्रेय) को जागृति पूर्णता के रूप में देखा गया। देखने का तात्पर्य समझने से ही है। समझने का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने से ही है। श्रेय के स्वरूप को जागृति और उसकी निरंतरता में ही होना देखा गया है। हर मानव, हर परिवार, हर समुदाय, हर पंथ-सम्प्रदाय सब जागृति को स्वीकारते ही हैं। इसे निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक हर मानव देख सकता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है हर देश काल में हर मानव श्रेय अपेक्षी है ही। इसे सार्थक रूप देने के लिये परंपरा सहज कर्तव्य स्वीकृति आवश्यक है। इस क्रम में यह भी स्पष्ट हो गया है कि साधना सहज क्रम में जागृति, जागृति विधि में व्यवस्था होना, नित्य अभ्यास एवं प्रमाण है।
अभ्यास ही अनुसंधान कार्यकलाप के रूप में प्रमाणित होता है। हर मानव में पायी जाने वाली प्रवृत्तियाँ अनुसंधान के लिये प्रयुक्त होने वाली मूल शक्तियाँ ही है। ये जीवन सहज शक्तियों के रूप में देखा गया है। जीवन शक्तियाँ जीवन भ्रमित रहते तक कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता के रूप में कार्य करते ही रहती है। सम्पूर्ण प्रयोग साधना के रूप में ही होता है। हर साधना सुधरने के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ रहता है। सुधार केवल जागृति की ओर ही है। जागृति का लक्ष्य बिन्दु अनुभव और प्रामाणिकता ही है। प्रामाणिकता अभ्युदय के अर्थ में अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यही मानव धर्म है। जागृति सुख, शांति, संतोष, आनंद के रूप में ख्यात रहता ही है। यही जीवनापेक्षा का नित्य स्वरूप है।
अनुभव अस्तित्व में ही होना पाया गया है। जीवन ही अस्तित्व में अनुभव करता है। इसीलिये जीवन ही कर्तापद प्रतिष्ठा में ख्यात होता है। यहाँ मुख्य रूप से इंगित मुद्दा यह है जीवन भी सहअस्तित्व में ही है। अस्तित्व का स्वरूप, प्रभाव पहले से स्पष्ट किया जा चुका है - अस्तित्व ही सहअस्तित्व है। सहअस्तित्व ही नित्य प्रभावी प्रकटनशील है। अस्तित्व में जो कुछ भी है - यह सब वस्तु के रूप में है क्योंकि इनमें वास्तवकिताएँ नित्य प्रमाणित हैं। अस्तित्व में व्यापक और एक-एक के रूप में अनन्त इकाईयाँ वर्तमान में होना दिखाई पड़ती है। जिसका दृष्टा मानव ही है। अस्तित्व में जो वस्तुएँ है, जितनी भी है इन्हीं वस्तुओं का नामकरण करना मानव का अधिकार सहज क्रियाकलाप है। जैसा- मिट्टी एक नाम है। मिट्टी नाम से इंगित वस्तु अस्तित्व में है ही। यह (मिट्टी) स्वयं में केवल नाम न होते हुए भी वस्तु के रूप में वर्तमान है। इसी प्रकार हर नाम से इंगित वस्तु अस्तित्व में होना वर्तमान है। व्यापक वस्तु में ही सम्पूर्ण एक-एक भीगा-डूबा और घिरा हुआ होने के आधार पर व्यापक वस्तु को सत्ता नाम दिया है। पहले से भी कुछ नाम है - वह है अध्यात्म। व्यापक वस्तु को पूर्व में सार्थक रूप में समझना-समझाना बन नहीं पाया था। अभी इस व्यापक वस्तु को हर मानव समझ पाना संभव हो गया है। एक-एक के रूप में जो वस्तुएँ है, इन्हें परस्परता में देखने के पहले ही व्यापक वस्तु दिखता ही है। इसी व्यापक वस्तु को हम अध्यात्म नाम भी