दिये हैं। इसी व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण वस्तु डूबा-भीगा-घिरा दिखाई पड़ने के आधार पर ‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ इस ग्रंथ का नाम रखा गया है। वाद सदा ही मानव परंपरा में एक-दूसरे के बीच संप्रेषणा कार्य ही है। दूसरे विधि से सम्भाषण ही है। मानव परंपरा में संभाषण एक अनिवार्य प्रक्रिया है। हर तथ्यों के प्रति जागृति और उसका संप्रेषणा मानव परंपरा में होना आवश्यक है ही। मानव में, से, के लिये समीचीन सभी आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य संबंधी सम्भाषण-संप्रेषणा एक अनिवार्य घटना है। यह घटना स्वाभाविक रूप में मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा को सार्थक बनाए रखने के क्रम में सर्वाभिलाषित है ही। इसी अभीप्सावश “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” की अभिव्यक्ति है।
सुदूर विगत से अनुभव के अभाववश कई प्रकार से विचारों को सजाते हुए भी मानवपेक्षा-जीवनापेक्षा का सफलता या सफल बिन्दु नहीं मिल पाया था। अभी “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद”, “व्यवहारात्मक जनवाद” और “समाधानात्मक भौतिकवाद” के रूप में सहअस्तित्व विधि से उभय-अपेक्षा सर्वसुलभ होने की विधि से चर्चा-वार्तालाप, संभाषण, प्रबोधन, अध्ययन करना संभव हुआ है। अध्ययनपूर्वक मानव में समझदारी परिपूर्ण होना देखा गया। इसीलिये सम्पूर्ण वस्तु समझदारी के लिये जो आवश्यकता है उन सबको परंपरा में सर्वसुलभ करने की आवश्यकता है ही। इन्हीं आशय के साथ जीवन सहज जागृति, जागृति सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा क्रम में यह एक वाङ्गमय मानव के सम्मुख प्रस्तुत है।
जीवन ही दृष्टा, सहअस्तित्व ही दृश्य, न्याय, धर्म, सत्यपूर्ण दृष्टियों का क्रियाशीलता ही दृष्टि का स्वरूप है। इसका साक्ष्य है न्याय सुलभता (परस्पर मानव और नैसर्गिकता में), धर्म सुलभता (सर्वतोमुखी समाधान सुलभता) और जागृति सुलभता (प्रामाणिकता और प्रमाण सुलभता) यह सब जागृति केन्द्रित विधि से सहअस्तित्व रूपी परम सत्य व्यवहार-कार्य रूप में सम्पन्न होना देखा गया है। जागृति हर व्यक्ति का आकांक्षा है ही। इसलिये परंपरा में निर्दिष्ट रूप में शिक्षा-संस्कार परंपरा में इनका सहज अध्ययन-मूल्यांकन पद्धति, प्रणाली, नीतियों को अपनाना ही परंपरा में वांछित परिवर्तन का स्वरूप है। दृष्टा पद रूपी जीवन अथवा दृष्टा पद प्रतिष्ठा में वैभवशील जीवन परंपरा में न्याय, धर्म, सत्य को अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित करने में मानव ही समर्थ है। इस तथ्य को परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक देखने के उपरान्त ही उद्घाटित किया है। इसलिये कि मानवाकांक्षा, जीवनाकांक्षा ही सर्वशुभ के रूप में है। यह सर्वदा मानव परंपरा में सफल होते ही रहेगी। जागृत परंपरा में ही हर मानव और परिवार सर्वाधिक उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील होते हुए उपकारी होना देखा गया है। उपकारिता का तात्पर्य मानव को, मानव जागृति मार्ग को प्रशस्त कराते हुए देखने को मिला है। यह क्रिया वश जो मानव कर पाता है वह उपकारी होता है वह जागृति सहज प्रमाणों को प्रस्तुत करता ही है, वर्तमान में समीचीन मानव जो जागृत नहीं हुए हैं उन्हें जागृत होने