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मानवापेक्षा व जीवनापेक्षा को प्रमाणित करने में असमर्थ रहा है अथवा पराभवित रहा है। इसी के साथ-साथ समाधान, समृद्धि, अभय व सहअस्तित्व की अपेक्षा हर समुदायों में बना ही रहा किन्तु प्रमाणित नहीं हो पाया है। इस तारतम्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि आदि काल से ही मानव सार्वभौम शुभ चाहते हुए अभी तक पराभवित होने का कारण एकांतवादी व भोगवादी प्रवृत्ति ही है। वैभवित होने का मार्ग भी सुस्पष्ट हो चुका है। यह केवल सहअस्तित्व में अनुभवमूलक प्रणाली ही है जो लक्ष्य मूलक, मूल्य मूलक अपेक्षाओं को सार्थक रूप देने में समर्थ होना देखा गया है। मूल्य मूलक प्रणाली से स्वाभाविक रूप से मानवापेक्षा सफल हो जाता है। लक्ष्य मूलक प्रणाली से जीवनापेक्षा सार्थक होना देखा गया है।

प्रणालियाँ मूलतः इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक अथवा अनुभवात्मक होना ही देखा गया है। इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक प्रणालियों पर आधारित प्रयोगों को मानव ने इस धरती पर किया है। इसका समीक्षा पहले हो चुका है। अब केवल मूल्य मूलक, लक्ष्य मूलक विधि ही सम्पूर्ण मानव के लिये शरण होना समीचीन है। मानव में मूल्य व लक्ष्य की अपेक्षा सदा रहते हुए इसके विपरीत प्रणाली से इसको पाने की अपेक्षा किया।

मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन कार्य, विनियम कोष, स्वास्थ्य-संयम, व्यवस्था व व्यवस्था में भागीदारी सहज मुद्दों पर जागृत सहज प्रमाण होना, जानने-मानने-पहचानने में निरीक्षण समर्थ होना और निर्वाह करने में निष्णात रहना ही प्रामाणिकता है। निष्णातता का तात्पर्य निरीक्षण पूर्वक हर कार्य व्यवहारों को पूर्णरूपेण पूर्णता के अर्थ में प्रतिपादित, प्रकाशित और प्रमाणित करना ही है। यह मानव सहज अपेक्षा और आवश्यकता होना देखा गया। इसकी दूसरी विधियों में मानव कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित और अनुमोदित विधाओं में जागृतिपूर्ण कार्यकलापों को प्रमाणित करना ही है। यह सर्वमानव स्वीकृत है। स्वीकृति को सर्वत्र देखने के लिए जागृत होना चाहते हैं या भ्रमित रहना चाहते हैं, इसके उत्तर में हर व्यक्ति जागृति का ही पक्ष लेते हैं। जागृति का सुस्पष्ट स्वरूप अस्तित्व में जागृत होना ही है। अस्तित्व में जागृत होने का गतिक्रम स्वरूप अपने आप में सहअस्तित्व में ही निहित है। जिसको हम सहअस्तित्व के रूप में पहचानते हैं। सहअस्तित्व में ही परमाणु में विकासक्रम और विकास, विकसित परमाणु ही जीवन पद में होना, जीवन ही जीवनी क्रम, जागृतिक्रम, जागृति और जागृतिपूर्ण विधियों से विविध परंपराओं में मुक्त रहने, अखण्डता सार्वभौम व्यवस्था सहज रूप में वर्तमानित रहने तथा गठनशील परमाणुओं में भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों के फलन में रचना-विरचनाएँ वर्तमान है, इन्हीं सहअस्तित्व सहज गति को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही जागृति और जागृति का प्रमाण है। इससे यह विदित होता है ऊपर कहे सभी क्रमों में हर मानव, सर्वाधिक मानव प्रमाणित होना ही जागृत मानव परंपरा का स्वरूप होना सुस्पष्ट हो गई। यही सर्वसुख विधि को सार्थक बनाता है।

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