1.0×

मानव चैतन्य प्रकृति के ज्ञानावस्था सहज अस्तित्व और परंपरा है। ज्ञानावस्था स्वयं इसी बात को ध्वनित करता है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता ही ज्ञानावस्था की ध्वनि का अर्थ है और सार्थकता है। यह भी देखने को मिलता है कि हर मानव निर्भ्रम और जागृत होना चाहता है। एकता-अखण्डता जागृति सहज अभिव्यक्ति है। भ्रमवश ही विखण्डता, अनेकता में विवश होना देखने को मिला है। न्याय, धर्म, सत्यरूपी परम ज्ञान, दर्शन, आचरण, व्यवस्था में एकरूपता को पाते हैं। इसी को अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का नाम दिया है। एकता सार्वभौम व्यवस्था सहज विधि से होता है। अखण्डता नियम और न्याय विधि से सम्पन्न होता है। समाज और व्यवस्था अविभाज्य होना स्पष्ट हो चुकी हैं। अस्तित्व में सहअस्तित्व विधि से ही मानव जागृत परंपरा के रूप में वैभवशील हो सकता है। जागृत मानव परंपरा में सम्पूर्ण वैभव का नित्य प्रमाण समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण वर्तमान परंपरा ही है। यही जागृति सहज परंपरा का फलन है।

परस्पर पहचानना-निर्वाह करना शाश्वत् नियम है। उपयोगिता सहित पूरक होना शाश्वत् नियम है। पूरकता का तात्पर्य विकास और जागृति में प्रमाण सहित प्रेरक पूरक होने से है। विकास और जागृति में स्व शक्तियों का अर्पण समर्पण है। जड़ प्रकृति में पूरकता किसी एक के अंश को स्वयं-स्फूर्त विधि से विस्थापित कर देने के रूप में ही है। मानव में समाधानपूर्वक समृद्ध होने की विधियों को देखा जाता है। यही पुन: जड़ प्रकृति में रचना-विरचना में भी देखने को मिलता है कि रचनाविधि में पूरकता, विरचनाएं पुनःरचना के लिये पूरकता के रूप में प्रस्तुत होना देखा जाता है। इस प्रकार पूरकता जड़ प्रकृति में भी देखने को मिलता है। परस्पर पूरक है इस तथ्य का साक्ष्य पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था और जीवावस्था से ज्ञानावस्था विकसित स्थिति में वर्तमान रहना ही है। सभी जीव संसार जीने की आशा से ही वंशानुषंगीय कार्य में तत्पर रहना पाया जाता है। ज्ञानावस्था के मानव उसी का अनुकरण-अनुसरण करने के जितने भी कार्यकलापों को अपनाया स्वपीड़ा-परपीड़ा, स्वशोषण-परशोषण, स्वयं के साथ वंचना और अन्य के साथ प्रवंचना और इन सबका सारभूत बात स्वयं के साथ समस्या और उसकी पीड़ा से पीड़ित रहना, अन्य को पीड़ित करना रहा। यही भ्रमित मानव परंपरा रूपी समुदायों में देखने को मिला। यही शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था इस दशक तक मानी जा रही है। ये सब समस्याकारी है। समस्या स्वयं पीड़ा के रूप में प्रभावित होना देखा गया। इसका निराकरण जागृति, उसका प्रमाण रूप में समाधान ही है।

अनुभव, व्यवहार और प्रयोग इन तीनों प्रकार से मानव सहज विधि से प्रमाणों की आवश्यकता, सदा-सदा ही बनी रहती है। यही निरन्तर मानव कुल में अपेक्षा, प्रयास और प्रमाणों के स्थितियों में देखने में आता है। आदि काल से समाधान की अपेक्षा रही है। इस शताब्दी के उत्तरार्ध के तीन दशक में मानव में

Page 38 of 151
34 35 36 37 38 39 40 41 42