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रूप में होना देखा गया है। इस जागृति प्रतिष्ठा सम्पन्न जीवन में चयन प्रक्रिया प्रामाणिकता से, विश्लेषण प्रक्रिया प्रामाणिकता से, चित्रण प्रक्रिया प्रामाणिकता से, संकल्प प्रक्रिया प्रामाणिकता से अभिभूत अनुप्राणित रहना देखा गया है। यही जागृति पूर्ण जीवन में मध्यस्थ क्रिया की महिमा है। जिसकी आवश्यकता, अनिवार्यता, प्रयोजनीयता कितना है, कहाँ तक है? यह हर व्यक्ति मूल्याकंन कर सकता है।

तात्विक रूप में ‘आचरणपूर्णता’ ही गंतव्य होने के कारण अस्तित्व ही नित्य वर्तमान और स्थिर होना अस्तित्व में अनुभव के फलन में सत्यापित होता है। यही सत्यापन सम्पूर्ण जीवन क्रियाकलापों में अनुप्राणन विधि में स्थापित हो जाता है अर्थात् आत्मा में हुई अनुभव से जीवन सहज सभी क्रियाएँ अनुप्राणित हो जाते हैं और अनुभव के फलन में तृप्ति अथवा आनन्द आत्मा में होना स्वाभाविक है। यही तृप्ति जीवन के सभी क्रियाओं में जैसे पाँचों शक्तियाँ और चारों बलों में तत्काल ही अनुप्राणित हो जाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन ही अनुभव सहज प्रतिध्वनि बन जाता है। यही तृप्त जीवन, ‘दिव्य जीवन’, ‘भ्रम मुक्त जीवन’, ‘जागृतिपूर्ण जीवन’ होना देखा गया है, समझा गया है। अस्तु, मध्यस्थ क्रिया के अनुरूप समूचा जीवन क्रियाकलाप होना ही जागृतिपूर्णता होना देखा गया है। इसी महिमावश जीवन में सम-विषमात्मक कार्यकलाप शून्य हो जाता है। इसी के लिये हर जीवन आतुर-कातुर, आकुल-व्याकुल रहता है। अतएव, मानव परंपरा में क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता सहज परंपरा की आवश्यकता है।

अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति नित्य वैभवित होने का स्वरूप, क्रिया श्रम-गति- परिणाम प्रकाशन सहज क्रियाकलाप और परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य सहज लक्ष्य निहित क्रिया, उपयोगिता पूरकता, उदात्तीकरण नियमों के अनुरूप सम्पूर्ण भौतिक-रासायनिक व जीवन रूपी प्रकृति में नित्य रचना-विरचना, ‘त्व’ सहित व्यवस्था और उसकी परंपरा भले प्रकार से बोध कराने की सहज क्रिया सम्पन्न किया जा चुका है। इसी क्रम में श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य रूपी प्रमाणों को मानव परंपरा में प्रमाणित करने की आवश्यकता रहा है। इसे सर्वसुलभ लोकगम्य करने के लिए अध्ययनपूर्वक जागृति विधि और इसके प्रमाण में बोध प्रणाली को पहचाना गया। यह भी अनुभव किया गया है कि बोध होना समझदारी का ही दूसरा नाम है अथवा बोध का ही दूसरा नाम समझदारी है। ऐसे समझदारी अध्ययनमूलक प्रणाली से अवधारणा में स्थापति होना, ऐसी अनुभवमूलक अवधारणाओं को अभिव्यक्त संप्रेषित प्रकाशित करने के क्रम में अस्तित्व में अनुभव एक अवश्यंभावी प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट हुई है। इस क्रम में अस्तित्व में अनुभव नित्य है। यही मानव का प्रयोजन है। जीवन नित्य है। अस्तित्व स्थिर है। इसी आधार पर अनुभव और अनुभव क्रम अभिव्यक्ति सहित जागृति सहज जीवन का गन्तव्य अर्थात् जीवन में जागृति पूर्णता ही जीवन गति का गंतव्य स्थली होना, उसकी निरन्तरता सदा-सदा

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