परिणाम का अमरत्व जो परमाणु में क्रिया का आशय अथवा दिशा बनी रहती है, जिसके आधार पर ही विकास के साथ जागृति सुनिश्चित बनी रहती है। विकास का मंजिल ही परिणाम का अमरत्व होना देखा गया है। यह भी देखा गया है परावर्तन, प्रत्यावर्तन मध्यस्थ क्रिया का नित्य कार्य है। क्रियापूर्णता व आचरणपूर्णता, जागृति का द्योतक होना स्पष्ट हो चुकी है। क्रियापूर्णता पूर्वक ही मानवीयतापूर्ण संचेतना (जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना) सार्थक हो जाता है। आचरणपूर्णता में जागृति पूर्णता, गति का गंतव्य सार्थक होना देखा गया है। यही मुक्ति पद का प्रमाण है। दिव्यमानव का स्वरूप यही है।
‘दिव्यमानव’ पद में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा सार्थक अर्थात् सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हो जाता है। यही ‘दिव्यमानव’-देवमानव और मानव के लिये प्रेरक होते है। सभी दिव्यमानव का समान कारकता, प्रेरकता प्रमाणित होती है। क्योंकि सम्पूर्ण सार्थक प्रेरणाएँ मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा के अर्थ में ही होता है। यही ‘दिव्यमानव’ अमानव को मानव पद में स्वत्व, स्वतंत्रता अधिकार पूर्वक जीने की कला सहित प्रेरक होना पाया जाता है। इस धरती में एक भी आदमी पशु मानव-राक्षस मानव पद को स्वीकारते नहीं है। यही जागृति पूर्णता की अपेक्षा बनी ही रहती है। जागृति और जागृतिपूर्णता की सहज संभावना जागृत परंपरा के रूप में समीचीन रहना आवश्यक है। अनुसंधान के रूप में समीचीन रहता ही है।
जीवन में आत्मा अविभाज्य स्वरूप है। यह मध्यस्थ क्रिया होने के कारण ही जीवन सहज संपूर्ण क्रियाकलाप को नियंत्रित, संतुलित और प्रेरित करता ही है। यह भी स्पष्ट हो चुका है आत्मा ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहित अनुभव क्रिया के रूप में वैभवित होना फलस्वरूप जीवन के क्रियाकलापों में अनुभव ही प्रभावशील होना देखा गया है। यही अनुभव जागृतिपूर्णता का स्वरूप होने के कारण स्वाभाविक रूप में अनुभव को संप्रेषित करना सहज सुलभ, अनिवार्य और परम प्रमाण होना स्पष्ट है।
जागृति पूर्णता पूर्वक ही अस्तित्व में दृष्टा वैभव मानव परंपरा में ही समीचीन होने की सत्यता को स्पष्ट किया जा चुका है। ऐसी महिमा सम्पन्न जागृति अर्थात् अनुभव से यह सत्यापन स्वाभाविक है कि मूलत: अस्तित्व ही सम्पूर्ण दृश्य है और दृश्यमान है। दृश्यमानता देखने का तात्पर्य में, समझने के विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है।
अस्तित्व ही सहअस्तित्व सहज परम सत्य है। इसे स्थिति सत्य के रूप में देखा गया है। स्थिति सत्य अपने स्वरूप में ही दृष्टा सहित सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार सम्पूर्ण अस्तित्व ही दृश्य, दृश्यमान फलत: समझ में आने में, अनुभव में स्पष्ट होती है जिसका सत्यापन स्वाभाविक है। यही अनुभव प्रमाण अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित होने का सूत्र है।