संघर्षपूर्वक ही जीना है, संघर्ष से ही अस्मिता बना रहता है यही सब घोषणा करते हैं। इन घोषणाओं में क्या सच्चाई कर रहे हैं? सारे झूठ की जड़ इन्हीं घोषणाओं में है। इसी पर आधारित परिवार, व्यापार, शिक्षा आदि झूठ के पुलिंदे के नीचे दबे हैं। कुछ इससे छूटने की कोशिश करते हैं कुछ दबे रहते हैं। हमारी इच्छा है शिक्षा में परिवर्तन करने की।
अभी हम जीवन सहज दस क्रियाओं को प्रमाणित करने को तत्पर हुए हैं। जीवन होने की स्वीकृति हर मानव में है ही। हर व्यक्ति अपने मन से कहता ही है कि जीवित हूँ, जीवन्त हूँ। किन्तु जीवन क्या है? जीवन का प्रयोजन क्या है? जीवन का अध्ययन करता कौन है? जीवन की दस क्रियाओं को मैंने समझा है, जीकर देखा है, ये मुझमें प्रमाणित हुई हैं। जीवन की दस क्रियाओं का नाम पहले समझ लें।
1. आत्मा - जीवन का यह एक भाग है जो सहअस्तित्व में अनुभव करता है। जिसे मध्यांश के रूप में मैंने देखा है। गठनपूर्ण परमाणु के मध्यांश के रूप में यह अपने आप में क्रियाशील रहता है। उसके प्रथम परिवेश, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ परिवेश के रूप में बाकी सभी क्रियायें सम्पादित होती है। जीवन परमाणु के मध्य में (आत्मा) दो ही क्रिया है :- अनुभव और प्रमाणिकता सहज रूप में व्यक्त होता है, जिसका प्रमाण मैं हूँ।
2. बुद्धि - प्रथम परिवेश में अनुभव प्रमाण बोध और ऋतम्भरा (संकल्प) दो क्रियायें होते देखा हैं। अनुभव प्रमाण को प्रमाणित करने का संकल्प क्रिया प्रकट होता है, जिसका नाम ऋतम्भरा है।
3. चित्त - द्वितीय परिवेश में चिंतन और चित्रण दो क्रियायें होती हैं।
4. वृत्ति - तृतीय परिवेश में तुलन और विश्लेषण दो क्रियायें होती हैं।
5. मन - चतुर्थ परिवेश में चयन और आस्वादन दो क्रियायें होती हैं। यही जीवन सम्पूर्णता में दस क्रियाएं हैं।
अभी तक मानव साढ़े चार क्रियाओं में प्रमाणित हुआ है। तुलन में प्रिय, हित, लाभ है। प्रिय, हित, लाभ के आधार पर संवेदनशीलता पर आधारित कार्य करना बन गया। संवेदनशीलता इंद्रिय मूलक, शरीर मूलक होता है। जबकि इंद्रियों को जीवंत बनाने का काम जीवन ही करता है। शरीर को जीवन मान लेना ही मूल भ्रम है। शरीर को जीवन मान लेने पर शरीर के अनुसार चलना होता है यही मान्यता का आधार है, जानना कुछ होता नहीं। होना क्या चाहिये जीवन को जीवन माना जाये और शरीर को शरीर। जीवन का और शरीर का प्रयोजनों के आधार पर मूल्यांकन होना सहज है। यदि ऐसा होता है मानव चेतना पूर्वक जीना बनता है। व्यवस्था में जीना बनता है। इनका मूल्यांकन नहीं हुआ तो अव्यवस्था होगा ही। व्यवस्था में जीने