के लिए आवश्यक है कि जीवन का मूल्यांकन प्रयोजन के आधार पर तथा शरीर का मूल्यांकन उपयोगिता के आधार पर हो। शरीर की उपयोगिता, जीवन अपनी जागृति को मानव परंपरा में प्रमाणित करने के लिए है। मानव शरीर रचना को मानव ने नहीं बनाया है। मानव शरीर बनने के बाद जब शिशु मिलता है तब वह जीवंत ही रहता है। जीवंत शिशु मिलने के बाद हम यह मान लेते हैं यह शरीर ही जीवन है। थोड़े दिन बाद वह शिशु भी यही मान लेता है। इस ढंग से परम्परा अपने आप में फंसने की बात बनी हुई है और इस फंसाव से निकलने के लिए अभिभावक को समझदार होना ही होगा।
शिशु का शरीर गर्भ में बनता है और उसे कोई न कोई ‘जीवन’ चलाता है। ‘जीवन’ प्रकृति में है ही। शरीर को ‘जीवन’ चौथे-पांचवें महीने में चलाना शुरू कर देता है। इस प्रकार शरीर और जीवन का संयोजन गर्भाशय में ही हो जाता है। ‘जीवन’ शरीर नहीं है। यह पहचानने की बात इस प्रकार है। शरीर के किसी भी अंग अवयव में न्याय की, धर्म की, सत्य की प्रतीक्षा अपेक्षा नहीं है। किन्तु हम हर मानव से न्याय की, व्यवस्था की, सत्य की, अपेक्षा, प्रतीक्षा करते ही हैं। इन अपेक्षाओं का पूरा होना ही जीवन की दस क्रियाओं को प्रमाणित करना है। शरीर को जीवंत रहने के लिए शरीर में जीवन होना जरूरी है।
‘जीवन’ अपने से, सदा से, शिशु काल से मन की दो क्रियाओं चयन, आस्वादन को शुरू करता है। विश्लेषण और तुलन में विश्लेषण तो करता ही है। तुलन में केवल प्रिय, हित, लाभ के आधार पर ही करता है। चित्त की एक क्रिया चित्रण को हम करते ही हैं। चित्रण क्रिया के कारण मानव अपना सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा की समस्त वस्तुओं को चित्रित कर लिया है और उसको प्राप्त कर लिया है। प्राप्त करने के बाद भी हम व्यवस्था तक नहीं पहुँचे। आदर्शवाद, शुभकल्पना अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया। भौतिक और उन्मादत्रय पूर्वक सुविधा-संग्रह प्रवृत्तियों का शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम के लोकव्यापीकरण में सफल होते हुए भी सबको सुविधा-संग्रह सुलभ नहीं हुआ। इन्हीं उपलब्धियों को हम सोचते रहे श्रेष्ठता की उपलब्धि है, मानवीयता की उपलब्धि है। मानव के अधिकारों की उपलब्धि है, शोषण, संघर्ष की उपलब्धि है। इन बातों को सुनकर हँसी भी आती है। अफसोस भी होता है। हम कैसे मान लिए कि हम मानव के लिए सब कुछ पा लिए, मानव का अध्ययन कर लिए। यह सोचने का पुनर्विचार करने का मुद्दा है। शरीर शास्त्र के नाम से जो कहा जाता है उसमें केवल शरीर रचना व प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है और कहते हैं कि मानव का अध्ययन कराया जाता है। आप सोचिए शरीर को काटकर, मांसपेशियों को, हड्डियों को गिनकर मानव का अध्ययन किया जा सकता है? जीवंत मानव शरीर में आँख, कान आदि का अध्ययन करने पर मानव का अध्ययन कैसे होगा। इस तरह परंपरा में मानव को झूठ का पुलिंदा लादा जाता है जबकि हम मानव का अध्ययन किये नहीं और डींग हांकते हैं कि हम मानव का अध्ययन कर लिये हैं।