मानवीयता पूर्ण आचरण और व्यवस्था में भागीदारी। इस विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभवमूलक विधि से अनुभव योग्य तथ्यों को स्थापित करना। स्थापित करने का तात्पर्य स्वीकृत सहज प्रमाण होने से है। अवधारणा का तात्पर्य अनवरत सुख स्त्रोत स्वीकृति एवं प्रमाण है।
सतत् सुख की अपेक्षा में ही मानव सम्पूर्ण कार्य करता हुआ, सोच-विचार करता हुआ देखा जाता है। इसमें सफल होना ही मानवीयतापूर्ण संस्कार, विचार, कार्य-व्यवहार और अनुभव है। सफलता का प्रमाण जीवनापेक्षा और मानवापेक्षा सफल होने से है। यह अच्छी तरह से देखा गया है कि जीवन अपेक्षा फलवती होने के साथ मानव अपेक्षा फलवती होती है। उसी प्रकार मानव अपेक्षा फलवती होने के साथ जीवन अपेक्षा फलवती होती है। इस तथ्य को हर व्यक्ति अपने में परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक निष्कर्षों को निकालते जाएँ तो हर मानव उपलब्धि और संतुष्टि स्थली में पहुँच पाता है। यहाँ इस बात का उल्लेख इसीलिये किया है कि जागृति के साथ-साथ मानव की उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयताएँ फलवती होते हैं। भ्रमित तरीके से नेक इरादे में कुछ भी किया जाए वह प्रमाणित नहीं हो पाता है। भ्रमित विधि का तात्पर्य यही है कि हम जाने बिना ही कुछ करते हैं इसके साथ आस्थाएँ भी जुड़ी रहती हैं। इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक का आंकलन है भय से प्रलोभन और प्रलोभन से आस्था अच्छा लगता है। भय और प्रलोभन के आधार पर ही संघर्ष होना देखा गया है। आस्थावादी क्षणों में मानव अपने आप में जो झलक पाता है उसी को शांति की संज्ञा देते हैं। उल्लेखनीय बात यही है आस्था शनै:-शनै: कोई न कोई विधि से रूढ़िवादी कट्टरपंथी के स्थली में पहुँचा देता है। इन दोनों स्थली में भय और प्रलोभन ही पुन: कार्यरत हो जाता है। इसे भली प्रकार से हर व्यक्ति देख सकता है। अस्तु भय, प्रलोभन, आस्था के संघर्षोंपरान्त एक मात्र दिशा और मार्ग सर्वतोमुखी समाधान ही है।
सम्पूर्ण नियम, विविध कार्य प्रणाली, विचार प्रणाली, व्यवहार प्रणालियाँ समाधान के अर्थ में अनुप्राणित रहने से, सम्पूर्ण समाधान व्यवस्था सूत्र से सूत्रित रहने से, सम्पूर्ण व्यवस्था ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में स्पष्ट रहने से और संपूर्ण व्यवस्था सहअस्तित्व के रूप में वर्तमान रहने से मानव अपेक्षा, जीवन अपेक्षा का फलवती होना सहज है। इसे मानव परीक्षण-निरीक्षण पूर्वक प्रमाणित कर पाता है। जहाँ परीक्षण-निरीक्षण पूर्वक तथ्यों को अनुभव करने का प्रस्ताव है-यह सब चिन्तनाभ्यास का ही स्वरूप है। चाहे चिन्तनाभ्यास हो, चित्रणाभ्यास हो, विषयाभ्यास हो मानव अभ्यासी तो रहेगा ही। हर मानव कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधि से मानव अपने को अभ्यास विधा में ही प्रशस्त बनाए रखता है। जिसमें से विषयाभ्यास इंद्रिय सन्निकर्ष केन्द्रित होना पाया जाता है और चित्रणाभ्यास विश्लेषण केन्द्रित होना पाया जाता है जिसके लिये श्रुति और स्मृति स्त्रोत होना पाया जाता है। चित्रणाभ्यास सुविधा संग्रह के लिये व्यस्त