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आभास में पीड़ा होना स्वाभाविक रहा। इसी आधार पर जागृत होने की आवश्यकता, सार्वभौम व्यवस्था का शरण स्वीकृत होना देखा गया। यही समग्रता के साथ मानव और समग्र व्यवस्था के अंगभूत रूप में सर्वमानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सम्पन्न होने की सहज विधि समीचीन है। समग्रता के साथ मानव का निरीक्षण, परीक्षण के फलन में यह तथ्य अनुभव संगत विधि से देखने को मिला।

उक्त विश्लेषण पूरकता विधि से भौतिक-रासायनिक क्रिया-प्रक्रियाएँ, परमाणु में अंशों का परिवर्तन, परस्पर अणुओं के पूरक विधि से रासायनिक द्रव्यों की महिमा सम्पन्न कार्यकलाप अनेक रचनाएँ, प्रत्येक रचना अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण इसी क्रम में यह धरती भी एक रचना, ग्रह-गोल आदि भी एक रचना है। यह धरती भी अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। इस धरती का पूरकता परस्पर ग्रह-गोल, सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूहों के समूह रूपी आकाशगंगा परस्परता में पूरकता विधि से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। यही व्यवस्था के रूप में कार्य करने का गवाही है। सौर-व्यूह में हर ग्रह-गोल परस्परता में निश्चित दूरी के साथ ही तालमेल बनाया हुआ दिखाई पड़ते है। ऐसे तालमेल ही व्यवस्था का स्वरूप है। क्योंकि ऐसे तालमेल विधि से पूरकता, उदात्तीकरण, विकास इसी धरती पर देखने को मिलता है। विकसित परमाणु ही चैतन्य इकाई जीवन है; आशा बन्धन जीवों में जीवनी क्रम; आशा, विचार, इच्छा बन्धन से जागृति क्रम मानव के रूप में स्पष्ट है। जागृति क्रम ही जागृति रूपी मंजिल के लिए सीढ़ी होना स्वाभाविक रहा। स्वाभाविक प्रक्रिया का तात्पर्य विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति और उसकी निरंतरता से है। विकास क्रम भी अपने में निरंतर है। विकास भी निरंतर है, जागृति क्रम भी निरंतर है और जागृति भी निरंतर है। जागृति क्रम का स्वरूप है शिक्षा-संस्कार पूर्वक जागृति की स्वीकृति सम्पन्न होता है। जागृति के अनन्तर मानव कुल सार्वभौम व्यवस्था सहज वैभव सम्पन्न होना। फलस्वरूप जागृति स्वीकृति के अनन्तर प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त रहता है। इस विधि से अनेकानेक मानव संतान जागृति क्रम में अवतरित होना, जागृतिपूर्ण मार्ग प्रशस्त होना यही मानव कुल का स्वराज्य है, वैभव है।

स्वराज्य व्यवस्था ही होता है, शासन नहीं होता। व्यवस्था के संदर्भ में पहले से उसके स्वरूप को स्पष्ट किया जा चुका है। परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य वैभव का उदय होना देखा जाता है। हर परिवार में शरीर यात्रा के लिए शरीर पोषण, संरक्षण एवं समाज गति के लिये आवश्यकीय वस्तुओं को उत्पादित करने का भी कार्यकलाप समाया रहता है। संबंध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति अथवा परस्पर तृप्ति विधि से व्यवहार और आचरण को प्रकट करना मूलत: परिवार का तात्पर्य है। ऐसे परिवार में उक्त तीनों प्रकार की आवश्यकताएँ बनी ही रहती है। इसके निर्वाह क्रम में उत्पादन कार्य की आवश्यकता बना ही रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ परिवार गति और समाज गति के लिए उत्पादन कार्य भी एक आवश्यकीय तत्व

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