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नहीं हो पाता है। आँख के अनन्तर शब्द और कहानी द्वारा मानव की कल्पना में बहुत सारा चीज आता है। ऐसे कथाओं के आधार पर किये गये कल्पनाएँ आँखों में आता नहीं। यही मुख्य मुद्दा है। सर्वमानव के साथ यही घटना घटती रहती है। चाहे कितने ही श्रेष्ठ अभ्यासों में परिपक्व क्यों न हुआ हो, चाहे सामान्य व्यक्ति क्यों न हो इस तथ्य का सर्वेक्षण हर व्यक्ति कर सकता है। यही मुख्य बिन्दु है आँखों से अधिक कल्पना होता है। साथ ही कल्पनाएँ आँखों में दिखती नहीं है। यही व्यथा हर मानव के साथ कमोबेशी बना हुआ है ही। इस मुद्दे में मुख्य रूप में जो विषमता का आधार है वह है देखने का परिभाषा। अभी तक आँखों पर जो कुछ भी प्रतिबिम्बित रहती है, दिखने की वस्तु यही है ऐसी ही मान्यता के आधार पर मानव सहज आँखों से अधिक शक्तिशाली यंत्र-उपकरण को बनाकर भी देखा गया। उपकरणों से दूर की चीज अथवा बहुत छोटी चीज को देखा भी है। इन उपकरणों से परमाणुओं एवम् परमाणु अंशों को देखने का दावा भी किये हैं और दूर में स्थित ग्रह-गोलों को, नक्षत्रों को देखने का सत्यापन किये हैं।

यह सर्वविदित तथ्य है आँखों में जो कुछ भी प्रतिबिम्बित होती है इसे आगे देखने पर पता चलता है मानव की आँखों में जो कुछ भी घटना और रूप दिख पाता है वह आंशिक भाग ही रहता है। हर रूप स्थिति में गति होना पाया जाता है। इस क्रम में रूप का परिभाषा जो आकार, आयतन, घन है उसमें से आकार का ही आंशिक भाग आँखों में प्रतिबिम्बित होता है। आकार और आयतन, घन अविभाज्य है। जो कोई भी आकार है सत्ता रूपी ऊर्जा में, शून्य में समायी रहती है, सभी ओर से सीमित रहता ही है। यही उस वस्तु का विस्तार अथवा आयतन का तात्पर्य है। आकार का स्वरूप लंबा, चौड़ा, ऊँचा, मोटा, गहरा, गोल, चपटा, बेलनाकार, विभिन्न संख्यात्मक कोणाकार में होना पाया जाता है। ऐसे सभी रूप में, से केवल आकार, आयतन का आंशिक भाग ही आँखों में प्रतिबिम्बित हुआ रहता है इससे किसी वस्तु का वर्तमान में होना स्वीकार होता है। स्वीकारने का पक्ष जीवन पक्ष का ही कार्यप्रणाली है।

हर परस्परता में पत्थर-पत्थर अथवा मृदा, पाषाण, मणि, धातुओं के परस्परता में, अन्न-वनस्पति की परस्परता में, पदार्थावस्था और प्राणावस्था की परस्परता में भी परस्पर प्रतिबिम्बन क्रिया बना ही रहता है। उसका सिद्धांत यही है ‘बिम्ब का प्रतिबिम्ब रहता ही है’। इसी क्रम में मानव का प्रतिबिम्ब, मानव सहित अन्य प्रकृति के साथ भी बना ही रहता है। अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में विद्यमान हर वस्तु में प्रतिबिम्ब ससम्मुखता के आधार पर ही होता है या रहता ही है। इसे स्वाभाविक रूप में हर व्यक्ति अपने ही शक्ति, कल्पना और तर्क प्रयोग परीक्षण के आधार पर प्रमाणित कर सकता है। प्रतिबिम्ब की संप्राप्ति के लिये किसी मानव को कुछ भी करना नहीं है। ससम्मुखता में स्थित हर वस्तु का प्रतिबिम्ब रहता ही है। इसी क्रम में हर व्यक्ति की आँखों में, व्यापक रूप में वर्तमान सत्ता में ही हर वस्तु डूबा, घिरा हुआ दिखाई पड़ता

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