वस्तुगत सत्य, हर वस्तु में समाहित रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का ही व्याख्या है। प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण होने के कारण प्रत्येक एक में यह चारों आयाम समाहित रहता ही है और अविभाज्य रहता है। धर्म शाश्वत् रूप यथास्थिति में वर्तमान होना स्पष्ट होता है। हर अवस्था में धर्म सुस्पष्ट है। स्वभाव, मूल्यों के रूप में हर इकाई में विद्यमान रहता है। इसी को मौलिकता के रूप में भी पहचाना जाता है। धर्म और मूल्यों के आधार पर ही मौलिकता का पहचान हो पाता है। हर वस्तु प्रकाशमान है ही। प्रकाशमानता का मौलिक तत्व धर्म और स्वभाव ही है। गुण सदा ही गति के रूप में होना देखा गया है। यह सम, विषम, मध्यस्थ रूप में गण्य होना देखा गया है। इसमें से मध्यस्थ गति धर्म और स्वभाव के मौलिकता और उसकी अक्षुण्णता के अर्थ में व्याख्या है। रूप का जहाँ तक व्याख्या है वह आकार, आयतन, घन के रूप में ही होता है। जीवन चैतन्य इकाई होने के कारण, एक ही परमाणु होने के कारण इसका आकार, आयतन, घन स्पष्ट हुआ रहता है।
हर विकासशील परमाणु भारबन्धन और अणुबन्धन सहित कार्य करता है। हर विकासशील परमाणु सत्ता में ही क्रियाशील रहना पाया जाता है। हर परमाणु गठनपूर्वक ही परमाणु है। गठन का स्वरूप मध्यांश और आश्रित अंश के रूप में होना व निश्चित दूरी में होना सहअस्तित्व सहज कार्यशीलता है। आश्रित अंश मध्यांश के सभी ओर चक्राकार में गतिशील रहना होता है। इसीलिये हर परमाणु गतिपथ (परिवेश) सहित परमाणु है। इनमें अंशों का अधिकाधिक समाहित होना एक से अधिक गतिपथ का होना भी होता है। जैसे-जैसे अंशों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे मध्य में भी अंश जमा होते जाते है। यह परमाणु में भार बन्धन का सूत्र है। सहअस्तित्व विधि से अंश-अंशों के साथ कार्य करने की विधि स्पष्ट है। इसी प्रकार परमाणु, परमाणु के साथ और अणु, अणु के साथ सहअस्तित्व को व्यक्त करने के क्रम में सहअस्तित्व का प्रकाशन किये हुए है। अणुरचित रचना ही वृहद रचना के रूप में ग्रह-गोल रूप में दृष्टव्य है। यह पूर्णतया अस्तित्व सहज सहअस्तित्व का नित्य प्रभावी कार्य है। परमाणु में विकास पूर्ण (गठनपूर्ण) होने के बाद अणुबंधन व भारबंधन से मुक्त हो जाते हैं। यही चैतन्य परमाणु जीवन पद में प्रतिष्ठित रहना पाया जाता है। ऐसे चैतन्य इकाई भार और अणुबन्धन से मुक्ति पाकर आशा बन्धन से अपने कार्य गतिपथ सहित पुंजाकार रूप में प्रतिष्ठित होना, ऐसे पुंजाकार का एक आकार होना, ऐसे आकार के एक शरीर रचना (पिण्डज या अण्डज विधि से) रचित रहना अस्तित्व सहज कार्यक्रम है। इसी कार्यक्रम के गति क्रम में मानव शरीर रचना भी एक स्वाभाविक क्रिया है। जीवन में आशा बन्धन के उपरान्त विचार बन्धन, इच्छा बन्धन बलवती होते हुए मानव शरीर द्वारा कर्म स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, क्रियाशीलता, क्रियाकलाप क्रम उसके परिणाम में आंकलन होना, फलत: जागृतिक्रम परंपरा के रूप में मानव प्रतिष्ठा होना, इसी कर्म स्वतंत्रता-कल्पनाशीलता और जागृतिक्रम प्रणालीवश (क्योंकि यह नियति क्रम है) अव्यवस्था का भास