1.0×

के लिये योग्य प्रस्तुति के रूप में हो जाता है। यह सहअस्तित्व में अनुभव सहज प्रामाणिकता सहित सर्वतोमुखी समाधान, समृद्धि सम्पन्न स्थिति और गति के रूप में होना देखा गया है; क्योंकि जागृतिगामी अध्ययन प्रणाली से हर व्यक्ति स्वायत्त होता है। स्वायत्तता का स्वरूप स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय (उत्पादन) में स्वावलंबी होना देखा गया है। ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में जीने देकर जीने में समर्थ होता है। यही अद्भूत सामर्थ्यवश सर्वतोमुखी समाधान और समृद्धि वैभवित होता है। यही हर स्वायत्त परिवार मानव सफलता का प्रमाण है और सर्वशुभ का भी प्रमाण है। अस्तु, मानव सत्य दृष्टि पूर्वक, धर्म दृष्टि पूर्वक, न्याय दृष्टि सहज स्वायत्त होता है और स्वायत्तता का मूल्यांकन कर पाता है। इसीलिये परिवार मानव का सार्वभौमता (परिवार मानवता में, से, के लिये सर्वमानव में स्वीकृति) प्रवाहित होना सहज है।

कर्ता-कार्य-कारण : यह तथ्य पहले स्पष्ट हो चुका है कि दृष्टा, कर्ता, भोक्ता पद में प्रमाणित होने वाली इकाई जागृत मानव ही है। जिसमें से भोक्ता पद में हर भ्रमित नर-नारी को देख सकते हैं। चाहे पंडित हो, मूर्ख हो, ज्ञानी कहलाता हो, अज्ञानी कहलाता हो, बली हो, दुर्बली हो, धनी हो, निर्धनी हो, बाल्य, कौमार्य, यौवन, प्रौढ़, वृद्धावस्था में क्यों न हो हर व्यक्ति हर अवस्था में इच्छित-अनिच्छित, परेच्छित विधि से भोक्ता हुआ देखने को मिलता है। भोग इस बात का साक्ष्य है कि कुछ करने का फलन में ही प्राप्तियाँ हो पाती हैं। स्वीकारना भी करना ही है। इस प्रकार कुछ करके, कुछ स्वीकार के भोग्य वस्तुओं को प्राप्त किया रहता है। यह तथ्य सर्वविदित है। इस क्रम में करने और स्वीकारने के रूप में हर मानव स्वतंत्र होना देखा गया है। एक व्यक्ति जो करता है उससे भिन्न दूसरा करता हुआ देखने को मिलता है, एक व्यक्ति जिन वस्तुओं को स्वीकारता है उससे भिन्न वस्तुओं को दूसरा व्यक्ति स्वीकारता है। इसलिये कर्म स्वतंत्रता सूत्र प्रमाणित हो जाता है। यह भी इसी के साथ निष्कर्षित होता है कुछ करने के आधार पर ही भोग्यमान वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

हर व्यक्ति में हर क्षण किसी एक भोग के उपरान्त पुनः भोगने के लिये प्रवृत्तियाँ उदयशील रहते ही हैं, उसमें परिवर्तन का आधार पूर्व में किया गया भोग देखने को मिलता है। इस विधि से भोगने के लिये, भोग्यमान वस्तुओं का परिवर्तन और परिवर्तित वस्तुओं की प्राप्ति के लिये करने की शैली में परिवर्तन, करने की शैली के मूल में विचारों का परिवर्तन होना देखा गया है। इस प्रकार न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रमाण सम्पन्न होने पर्यन्त हर मानव में, से, के लिए परिवर्तन अवश्यंभावी है।

सम्पूर्ण परिवर्तन मानव में जो कुछ भी देखने को मिलता है, देखने का नजरिया करने के लिये वैचारिक तैयारी और शरीर के द्वारा सम्पन्न किये जाने वाली क्रिया व्यवहार ही है। इन्हीं के फलन में प्राप्तियाँ होना

Page 126 of 151